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________________ ___42 महाभारत के शान्तिपर्व में, विश्वामित्र जैसे तपस्वी को अकाल के समय चाण्डाल के घर से फुत्ते की टांग चुराकर उसका मांस खाना पड़ा था। यहाँ तक कि चाण्डाल ने उन्हें चोरी करते पकड़ लिया और उनकी वेशभूषा को देखते हुए समझाया कि आपके लिए मांस का भक्षण करना दोषप्रद है, आपके धर्म के विपरीत है, परन्तु विश्वामित्र ने यह उत्तर दिया - 'येन येन विशेषेण कर्मणा ये केचचित्। यावज्जीवेत् साधमानः समर्थो धर्ममाचरेत्।। _ (महाशान्तिपर्व, अ. 146) यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम आदमी अपने जीवन की रक्षा करे, भले ही इसके लिए उसे कोई भी साधन क्यों न अपनाना पड़े। कारण, जीवित रहकर ही कोई व्यक्ति किसी धर्म का पालन कर सकता है। इस प्रकार, यह मान्यता बनती है कि आहार-विचार देश और काल के अनुसार होना चाहिए। इस प्रकारआहार-संज्ञा शरीर-संरक्षण एवं शरीर-निर्माण के लिए आवश्यक है। शुद्ध आहार ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब होता है, इसलिए आहार जितना सात्विक एवं शुद्ध होगा, व्यक्ति का शरीर भी उतना ही स्वस्थ्य एवं पुष्ट होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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