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दीपो भक्ष्येद् ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते। यादृशं भुयते चान्नं, जायते तादृशी प्रजाः ।।
अर्थात् दीपक अंधेरे को खाता है, इसलिए काजल पैदा करता है, क्योंकि जो जैसा भोजन करता है, वैसी ही प्रज्ञा को उत्पन्न करता है, यह सृष्टि का नियम है।
उपर्युक्त उदाहरणों के आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि हमारे जीवन का, चारित्र का एवं व्यक्तित्व का सही निर्माण करने में आहार-शुद्धि की बहुत बड़ी भूमिका रहती है।
दुनिया के ऋषि-महर्षियों और ज्ञानियों ने सात्विक एवं शुद्ध आहार के बल पर ही अपनी साधनाओं को चरमोत्कर्ष तक पहुंचाया है। श्रावक पुणिया की कथा का उदाहरण भी आहार-शुद्धि के लिए सर्वप्रसिद्ध है। एक बार पुणिया श्रावक ने अपनी धर्मपत्नी से कहा – “आज मेरा मन सामायिक में विचलित हो गया, इसका क्या कारण हो सकता है ?" चिन्तन कर पत्नी बोली –“कल रसोई बनाने के लिए पड़ोसी से बगैर पूछे गोबर का एक कण्डा (उपला) लाई थी, चूंकि वह अनीति का था, अतः उससे जो आहार पकाया, वह शुद्ध कैसे हो सकता है ? इसलिए आपका मन सामायिक में विचलित हुआ।
इससे स्पष्ट होता है कि अशुद्ध आहार व्यक्ति के मनोभावों को भी अशुद्ध करता है।
आहार की आवश्यकता क्यों ?
शरीर के निर्माण के लिए।
शरीर के संरक्षण के लिए।
आहारः प्राणिनः सद्यो बलकृद्देहधारकः । आयुस्तेजः समुत्साहस्मृत्योजोऽग्निविवर्द्धनः ।। सुश्रुत।।
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