SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आहार - संज्ञा का स्वरूप एवं लक्षण अध्याय-2 आहार-संज्ञा भारतीय मनीषियों ने यह माना है कि साधना के लिए शरीर आवश्यक है, शरीरमाद्यं खलु धर्म बिना शरीर के साधना संभव नहीं होती, इसलिए कहा गया है साधनम्।' अर्थात् शरीर धर्म का साधन है। किन्तु यह शरीर आहार आश्रित है, आहार के बिना शरीर चल नहीं सकता। जैनदर्शन में छह पर्याप्तियों का भी उल्लेख मिलता है। पर्याप्ति, अर्थात् आहार शरीर आदि वर्गणा के परमाणुओं को शरीर, इन्द्रिय आदि-रूप में परिणमन की शक्ति की पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं, या आहार, शरीरादि की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं । उन छह पर्याप्तियों में प्रथम आहार - पर्याप्त है । आहार -पर्याप्ति के कारण ही शरीर का निर्माण प्रारंभ होता है । शरीर के बाद इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा एवं मन - पर्याप्तियों का निर्माण होता है । अतः, हम यह कह सकते हैं कि आहार ही मनुष्य के अस्तित्व का प्रथम सोपान है। इस कारण से, जैनदर्शन में सभी संज्ञाओं में आहार - संज्ञा को सर्वप्रथम माना गया है । इन पर्याप्तियों के पूर्ण होने पर भी संज्ञा तो बनी ही रहती है। 1 क्षुधावेदनीय - कर्म के उदय से आहार के पुद्गलों को ग्रहण करने की अभिलाषा आहार- संज्ञा है । 1 अन्तरंग में असातावेदनीय कर्म की उदीरणा से तथा बहिरंग में आहार को देखने से, आहार करने में उपयोग लगाने से एवं पेट खाली होने से जीव को जो कुमारसम्भव महाकाव्य ( महाकवि कालिदास) ± आहार य सरीरे तह इन्द्रिय आणपाण भासाए होति मणो वि य कमसो पज्जतीयो जिणमादा 3 Jain Education International लेख आरोग्य अंक, पृ. 347 (75 वें वर्ष के कल्याणक विशेषांक) 34 मूलाचार, गाथा 1048 धवला, 1/1/140 'उत्तराध्ययनसूत्र, चरण विधि (मधुकरमुनि), अध्याय 31 / पृ.सं. 555 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy