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सूक्ष्म मोह भी उदय में आकर क्रियाशील होकर व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है, किन्तु मोह का पूर्णतः नाश होने पर व्यक्ति शीघ्र ही वीतराग-दशा को प्राप्त कर मोक्ष को पा लेता है।
आचारांगसूत्र में कहा गया है -"मोहग्रस्त होने वाला साधक न इस पार का रहता है, न उस पार का, अर्थात्! न इस लोक का रहता है और न परलोक का ।"5 अनेकानेक कामनाओं के कारण मनुष्य का मन बिखरा हुआ रहता है। वह अपनी कामनाओं की पूर्ति क्या करना चाहता है, एक तरह से छलनी को जल से भरना चाहता है। धवला में कहा गया है -क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति-अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और मिथ्यात्व -इनके समूह का नाम ही मोह है। पंचास्तिकाय में कहा गया है -दर्शनमोहनीय के विपाक से जो कलुषित परिणाम होते हैं, वे ही मोह हैं। समयसार में कहा गया है कि जो मोह से ग्रस्त है, वे अज्ञानी हैं और व्यवहार में ही विमूढ़ हैं, वे ही परद्रव्य को मेरा कहते हैं, जो ज्ञानी हैं वे निश्चय से प्रतिबद्ध हो गए हैं, वे कणमात्र भी पुद्गलद्रव्य को, यह मेरा है -ऐसा नहीं कहते।
वस्तुतः, जीव के संसार परिभ्रमण का मूल कारण मोह है। यह संसार मोह की ही लीला है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब बड़े-बड़े महान पुरुष मोह के आगे पराजित हो गए तो साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े तपस्वी महापुरुष भी मोह की भीषण शक्ति के आगे नतमस्तक हो जाते हैं। चार ज्ञान के धनी, अनेक लब्धियों के स्वामी श्री इन्द्रभूति गौतम गणधर भी (प्रशस्त) मोह के कारण भगवान् महावीर की उपस्थिति में केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सके। अपार समृद्धि के त्यागी शालिभद्रमुनि को भी थोड़े-से माता के मोह के कारण एक और
'इत्थ मोहे पुणो पुंणो सन्ना। नो हव्वाए नो पाराए। - आंचारांगसूत्र, 1/2/2 'अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे
से केयणं अरिहए पूरइत्तए । – वही 1/3/2 'समयसार, गा. 324 श्रीकल्पसूत्र, 126, श्री जिन आनन्दसागर सूरीश्वरजी म.सा. पृ. 262
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