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अध्याय-13 (अ) मोह-संज्ञा {Instinct of delusion}
मोह-संज्ञा का स्वरूप -
संज्ञाओं के चतुर्विध और दशविध वर्गीकरण में तो कही भी मोह-संज्ञा का उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु संज्ञाओं का जो षोडषविध ' वर्गीकरण है, उसमें मोह-संज्ञा को तेरहवां क्रम दिया गया है। जैन-परम्परा में मोह को कर्मबंधन का मूल हेतु माना गया है। 'मोह' शब्द को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि सत् और असत् में विवेक का अभाव ही मोह है। जो इस विवेक को कुंठित करता है, उसे मोहनीय-कर्म कहा जाता है। वस्तुतः, मोह व्यक्ति को सत् और असत् का विवेक करने से विमुख कर देता है और सत् और असत् के विवेक का यह अभाव ही मोह कहा जाता है। मोह के कारण ही व्यक्ति 'पर' में 'स्व' का आरोपण करता है। प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं – मोह से ही 'मैं' और 'मेरा' भाव उत्पन्न होता है।' 'अहम्' और 'मम्' दोनों का आधार मोह ही है। यहाँ अहम् से तात्पर्य अहंकार से है और मम् से तात्पर्य मेरेपन के मिथ्याभाव से है। विवेक का अभाव होने से व्यक्ति में यह मिथ्या धारणा जन्म लेती है। मेरेपन का भाव ही ममत्व कहलाता है। मोह और तद्जन्य ममत्ववृत्ति के कारण व्यक्ति 'पर' को अपना मानने लगता है। पर को अपना मानना अज्ञान-दशा है। इस प्रकार का भाव ही 'मोह-संज्ञा' है। वीतराग-दशा की प्राप्ति के पूर्व दसवें गुणस्थान तक इस मोह-संज्ञा का अस्तित्व रहता है। मोह के उदय के अभाव, में किन्तु अन्तस में उसकी सत्ता रहने पर उपशान्तमोह-संज्ञा प्राप्त होती है। यह ग्यारहवां गुणस्थान है। सत्ता में रहा हुआ 11) आचारांगसूत्र, 1/2/2 विवेचना
अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-7, पृ. 301
21) उत्तराध्ययनसूत्र, 32/7
2) कर्मविज्ञान, आ. देवेन्द्रमुनि, भाग-4, पृ. 226 'कीरदि अज्झवसाणं, अहं ममेदं ति मोहादो - प्रवचनसार, 2/91 * ममेत्यस्य भावो ममत्वं । - स्वयम्भूस्तोत्र, टीका 10
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