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________________ 480 लालसा ने अशान्ति की ज्वाला विकराल कर दी है। पग-पग पर व्यक्ति पीड़ा और कष्टों को झेलता है। वह जानता है, पर पकड़ता उसी आग को है, जो उसे निरन्तर जला रही है। इस कारण, समाज के प्रत्येक घटक में घृणा, अविश्वास, मानसिक तनाव व अशान्ति के बीज प्रस्फुटित हो रहे हैं। वर्तमान युग में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं या इच्छाओं को असीमित रूप में बढ़ाकर फिर उनकी पूर्ति हेतु मारा-मारा फिरता है और सुख प्राप्ति की आशा करता है। यह तो मरुभूमि में प्यास बुझाने के समान है। इच्छाओं की वृद्धि में सुख नहीं, वरन् उनके संयम और सन्तोष में ही सुख है। महाभारत में कहा गया है - स्व संतुष्टः स्वधर्मस्थो यः सर्वे सुखमेधते।।130 जो आत्मसन्तोषी और अपने धर्म में स्थित है, वही सुख प्राप्त करता है। कवि रहीम ने कहा है - गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान। जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।। जीवन में जिस सुख और शान्ति की प्राप्ति की अपेक्षा हमें है, वह न तो इस लक्ष्यविहीन भौतिक दौड़ से प्राप्त हो सकती है और न आवश्यकताओं को निर्बाध गति से बढ़ाने से। वस्तुतः, वास्तविक सुखशान्ति तो अन्दर ही है और धर्म इस शान्ति की स्थापना करता है। 6. धर्म पारिवारिक और सामाजिक जीवन में समरसता लाता है - __ भारतवर्ष धर्मप्रधान देश है। भारत की यह ख्याति आधुनिक भारतीय जीवन के कारण नहीं, वरन् इस कारण है कि प्राचीनकाल से भारत की प्रजा का जीवन धर्म से अनुप्राणित रहा है। जब से मानव-समाज का निर्माण हुआ, सभ्यता और संस्कृति का भी अभ्युदय हुआ, तभी से प्रजा के एक विशिष्ट वर्ग ने धर्मसम्बन्धी चिन्तन और उसके प्रचार-प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित किया और उस वर्ग की परम्परा आज भी अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है। 130 महाभारत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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