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उच्चपद पर आसीन कर देता है। धर्म मनुष्य की व्यावहारिक-जीवन की अर्थहीनता
और क्षणभंगुरता का पाठ पढ़ाता है और उसे इस तथ्य का ज्ञान देता है कि इस जगत् से भी परे एक उच्च आध्यात्मिक-जगत् है, वही मनुष्य का आदर्श स्थान है। इस आदर्श स्थान को प्राप्त करना मनुष्य का प्रमुख और सर्वोच्च लक्ष्य है। धर्म मनुष्य को व्यावहारिक-जीवन के दुःखों और कष्टों को दूर कर उन्हें सहन करने की शक्ति प्रदान करता है।
2. धर्म व्यक्ति के विकास का अद्वितीय साधन है - __डॉ. राधाकृष्णन ने धर्म को व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के साधन के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है –“यह चारों वर्गों के
और चारों आश्रमों के सदस्यों द्वारा जीवन के चार प्रयोजनों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) के सम्बन्ध में पालन करने योग्य मनुष्य का समूचा कर्त्तव्य है। जहाँ सामाजिक व्यवस्था का सर्वोच्च लक्ष्य है कि मनुष्य को आध्यात्मिक–पूर्णता और पवित्रता की स्थिति तक पहुंचाने के लिए प्रशिक्षण लिया जाए, वहाँ इसका एक अत्यावश्यक लक्ष्य इसके सांसारिक-लक्ष्य के कारण इस प्रकार की सामाजिक दशाओं का विकास करना भी है, जिनमें जनसमुदाय नैतिक, भौतिक और बौद्धिकजीवन के ऐसे स्तर तक पहुंच सके, जो सबकी भलाई एवं शान्ति के लिए हो, क्योंकि यह दशा प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन और अपनी स्वतंत्रता को अधिकाधिक वास्तविक बनाने में सहायता देती है।"128 इन्हीं मार्गों से चलकर व्यक्ति अपना विकास करता है, अतः धर्म व्यक्ति के विकास का अद्वितीय साधन है।
3. धर्म व्यक्ति को तनावों से मुक्त करता है -
मानव-मन की अशान्ति और दुःख के कारणों के मूल में मानसिक तनाव या मनोवेग ही मुख्य हैं। मानव-मन की अशान्ति एवं उसके अधिकांश दुःख कषायजनित 128 सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन का धर्म एवं दर्शन, – डॉ. डी.ए. गंगाधर, पृ. 53
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