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________________ जैन-दृष्टिकोण - भारतीय-आचारशास्त्र में जैनधर्म और दर्शन व्यवहार के प्रेरक-तत्त्व के रूप में राग और द्वेष को प्रमुखता देता है। उत्तराध्ययनसूत्र में राग और द्वेष को कर्म-बीज कहा गया है। उसमें राग ही प्रमुख है। राग तृष्णा, आसक्ति, कामना, ममत्ववृत्ति आदि का पर्यायवाची ही है उनकी मान्यता है कि रागभाव और आसक्ति के कारण कर्म-संस्कार व्यक्ति के व्यवहार के प्रेरक तत्त्व है। उनकी यह मान्यता है कि संज्ञाओं के विविध रूप इसी रागात्मकता से उत्पन्न होते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है –'काम में जो आसक्ति है, वह कर्म के प्रेरक-तथ्य हैं। 53 सम्पूर्ण जगत् में जो कायिक, वाचिक और मानसिक-कर्म हैं वे ही काम भोगों की अभिलाषा होने से दुःखरूप है। 54 जैनदर्शन के अनुसार, यह कामवासना या रागभाव, जो कि पूर्व कर्म-संस्कारों के कारण उत्पन्न होता है, प्राणी के व्यवहार का प्रेरक-सूत्र है। पूर्व कर्म संस्कारों से रागादि के संकल्प होते हैं और उनसे ही कर्म की परम्परा बढ़ती बौद्ध-दृष्टिकोण - बौद्धधर्म-दर्शन में कर्म के प्रेरक-तत्त्व के रूप में कामना, तृष्णा, इच्छा को ही मूल-तत्त्व माना गया है। भगवान् बुद्ध ने धम्मपद में कहा है -"तृणा से मुक्त होकर प्राणी बंधन में पड़े हुए खरगोश की भांति संसार–परिभ्रमण करता रहता है। उन्होंने आगे कहा है – “काम से ही समस्त भय और शोक उत्पन्न होते हैं। 56 अंगुत्तरनिकाय में भगवान् बुद्ध ने कहा है -छंदराग (आसक्तियुक्त इच्छा) सभी कर्मों 52 उत्तराध्ययनसूत्र – 32/7 ७ आचारांगसूत्र, 1/3/2 54 उत्तराध्ययनसूत्र - 32/19 55 धम्मपद, 343 56 वही - 215 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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