SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 28 व्यवहार में वासना और विवेक -दोनों ही तथ्य रहते हैं, किन्तु जैन-आचार्यों का यह निर्देश रहा है कि जीवन के वासनात्मक पक्ष पर विवेक का नियंत्रण हो और दैनिक आवश्यकता की पूर्ति विवेकपूर्ण ढंग से की जाए, इसीलिए जैनधर्म में व्यवहार और आचरण की अनेक मर्यादाएं निश्चित की गई है। यह सत्य है कि क्षुधा की पूर्ति के लिए आहार करना ही होगा, पर कब, कितना और कैसा आहार करना होगा, यह विवेक ही बताएगा। मानवीय व्यवहार में वासना और विवेक का संतुलन आवश्यक है। वासना प्रेरक है और विवेक निर्यामक। अन्य धर्म-दर्शनों में संज्ञा की अवधारणा - . वासना और विवेक -दोनों ही प्राणी व्यवहार के प्रेरक-तत्व हैं। भारतीयधर्मदर्शन में भी वासना, कामना, इच्छा, आकांक्षा, आशा, लोभ, तृष्णा और आसक्ति को व्यवहार के प्रेरक-तत्त्व के रूप में माना गया है। भारतीय-दर्शन में इन सभी का सामान्य अर्थ मन और इन्द्रियों के माध्यम से विषयों की चाह है। जैसा हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि भारतीय-दर्शन और धर्म जीवन के दो पहलू मानता है, एकवासनात्मक और दूसरा-विवेकात्मक, यद्यपि ये दोनों ही व्यवहार के प्रेरक-रूप हैं। ___ जैनदर्शन में संज्ञा का व्यापक अर्थ में प्रयोग हुआ है। उसमें वासना और विवेक -दोनों ही समाए हुए हैं, जबकि पाश्चात्य-मनोविज्ञान नीतिशास्त्र और पाश्चात्य-नीतिशास्त्र वासना को ही व्यवहार के प्रेरक के रूप में स्वीकार करता है, यद्यपि आधुनिक मान्यतावादी-दर्शन यह अवश्य स्वीकार करता है कि मनुष्य में वासना के अतिरिक्त विवेकशीलता, आत्मसजगता और संयम की शक्ति भी है और मनुष्य का सदाचरण वासनात्मक-पक्ष के ऊपर इन तीनों के नियंत्रण पर निर्भर करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy