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________________ 476 धर्म की जीवन में उपादेयता - मनुष्य एक सामाजिक-प्राणी है। समाज से अलग-थलग रहना उसके लिए न उचित है और न ही संभव। समाज में रहते हुए समाज के लिए अधिक से अधिक उपयोगी बना रह सके, इसी में उसके जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है। जो धर्म से ही संभव है। स्वस्थ चित्त वाले व्यक्तियों से ही स्वस्थ समाज का निर्माण होता है, अस्वस्थ व्यक्ति वही है, जिसका मन विकारों से विकृत रहता है, अतः सुखी-स्वस्थ समाज का निर्माण करने के लिए व्यक्ति-व्यक्ति के चित्त को निर्मल करना नितांत आवश्यक है। एक-एक व्यक्ति स्वस्थ एवं स्वच्छ-चित्त हो, शांतचित्त हो, तो ही समग्र समाज की शांति बनी रह सकती है। धर्म इस व्यक्तिगत शांति के लिए एक अनुपम साधन है और इसी कारण विश्व-शांति का भी एकमात्र साधन है। आदरणीय सत्यनारायणजी गोयनका का कथन है - धर्म न हिन्दू बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन। धर्म चित्त की शुद्धता, सुख शांति और चैन।। धर्म का अर्थ संप्रदाय नहीं है। संप्रदाय तो मनुष्य-मनुष्य और वर्ग-वर्ग के बीच दीवारें खड़ी करने एवं विभाजन पैदा करने का काम करता है, जबकि शुद्ध धर्म दीवारों को तोड़ता है, विभाजनों को दूर करता है। शुद्ध धर्म मनुष्य के भीतर समाए हुए अहंभाव अथवा हीनभाव को जड़ से उखाड़ फेंकता है। मानव मन की आशंकाएं, उत्तेजनाएं, उद्विग्नताएं दूर करता है और उसे स्वच्छता और निर्मलता के धरातल पर प्रतिष्ठित करता है। ___धर्म मनुष्य की आध्यात्मिक आवश्यकता है। यह वह विशिष्ट माध्यम है, जिसके द्वारा मनुष्य सत्य, शिव और सुन्दर के पूर्ण स्वरूप की खोज करता है। धर्म मानव-अस्तित्व के उच्चतम मूल्यों के साथ व्यक्ति का सीधा और सहज सम्पर्क स्थापित करने का साधन है। “धर्म एक आदर्श जीवन-शैली है, सुख से रहने की पावन पद्धति है, शान्ति प्राप्त करने की विमल विद्या है तथा सर्वजन-कल्याणी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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