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________________ 475 का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना ही हिंसा है। यही जैन-आगमों का सार है।122 जिस प्रकार हाथी के पैर में सब प्राणियों के पैर समा जाते हैं, उसी प्रकार अहिंसा में सब धर्मो के अर्थ व तत्त्व समा जाते हैं। ऐसा समझकर जो अहिंसा का प्रतिपालन करते हैं, वे नित्य अमृत (मोक्ष) में वास करते हैं।123 अभिप्राय यह है कि सभी धर्मों ने, पंथों ने, सन्तों और महर्षियों ने एक स्वर में अहिंसा के महत्त्व को स्वीकार किया है। अहिंसा धर्म, संस्कृति, समाज और राष्ट्र के योगक्षेम का मूलाधार है। अहिंसा के अभाव में धर्म, संस्कृति, समाज और राष्ट्र का कोई भी मूल्य नहीं है। अहिंसा एक अमृतकलश के समान है, जिसका स्वाद सभी के लिए मधुर है, मधुरतम है। जहाँ अहिंसा है, मैत्री है, करुणा है, दया है, स्नेह है, सौहार्द्र है, सद्भावना है, वहीं सर्वोदय है और जहाँ सर्वोदय है, वहीं शान्ति है, सुख है और वहीं धर्म है। धर्म के स्वरूप की विस्तृत व्याख्या के अन्तर्गत हमने धर्म के वस्तु-स्वभावरूप, क्षमादि सद्गुणोंरूप, रत्नत्रयरूप और अहिंसारूप -इन सभी को व्याख्यायित किया है। ___ यदि हम ध्यान से देखें, तो धर्म के स्वरूप की ये व्याख्याएं मूल में वस्तु स्वभावरूप परिभाषा का ही विस्तार है। अन्ततः, क्षमा आदि सद्गुण, रत्नत्रय और अहिंसा आत्मा के ही तो स्वभाव हैं। एक स्वभाव के कथन में अन्य स्वभावों का कथन स्वतः ही सम्मिलित हो जाता है, अतः इस स्वभाव की प्राप्ति में सहायक तत्त्व भी उपचाररूप से धर्म के स्वरूप ही माने जाते हैं। 123 122 ओघनियुक्ति, 754 यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्। सर्वाण्येवापि धार्यन्ते पदजातानि कौञ्जरे।। एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपि धीयते। अमृतः स नित्यं वसति योऽहिंसा प्रतिपद्यते।। - महाभारत 12/237/18/19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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