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________________ 473 होती है। आचारांगनियुक्ति में कहा गया है – ज्ञान का सार आचरण है और आचरण का सार निर्वाण या परमार्थ की उपलब्धि है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार, चित्त अथवा आत्मा की वासनाजन्य मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना सम्यक्चारित्र है।110 वस्तुतः, चित्र का शरीर से व चरित्र का सम्बन्ध आत्मा से है। भारतीय जनमानस चित्र को आदर की दृष्टि से देखता है, फिर भी वह चित्र की प्रतिष्ठा में उतना श्रद्धावान् नहीं जितना चरित्र में है, क्योंकि चरित्र गुण को प्रतिबिम्बित करता है और सम्यक् आचरण ही व्यक्ति को धर्म में स्थिर करता है। __ दूसरे अर्थ में स्वरूप में रमण करना ही चारित्र है, यही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है।" द्रव्य जिस समय जिस भाव-रूप अर्थात् पर्याय में परिणमन करता है, उस समय वह उसी रूप में होता है -ऐसा कहा गया है, इसलिए धर्मपरिणत आत्मा को धर्म समझना चाहिए। आध्यात्म-साधना में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र -इन तीनों का गौरवपूर्ण स्थान है। 112 दृष्टि की विशुद्धि से ज्ञान विशुद्ध होता है113 और ज्ञान की विशुद्धि से ही चारित्र निर्मल होता है114 और इन तीनों के सम्मिलित अर्थ को धर्म कहते हैं। 4. जीवों की रक्षा करना धर्म है - धर्म का चतुर्थ स्वरूप जीवों की रक्षा करना है। भारतीय-चिन्तकों ने और जैनधर्म में अहिंसा का जितनी गहराई से चिन्तन किया है, उतना विश्व के अन्य 110 1) आचारांगनियुक्ति –244 2) जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-2, पृष्ठ 84 " स्वरूपे चरणं चारित्रं । स्वसमय प्रवृत्तिरिक्तर्थः तदेव वस्तुस्वभावत्माद्धर्म । – प्रवचनसार, गा.7 वही, गाथा-8 12 तिविहे सम्मे पण्णत्ते, तं जहा–णाणसम्मे, दंसणसम्मे चरित्तसम्मे। – स्थानांगसूत्र 3/4/114 13 नादंसणिस्स नाणं - उत्तराध्ययनसूत्र 28/30 ।। नाणेव विना न हुंति चरणगुणा – वही 28/30 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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