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________________ 472 होता है।100 जिस व्यक्ति में ज्ञान और प्रज्ञा होती है, वही निर्वाण के समीप होता है। गीताकार का कथन है कि अज्ञानी; अश्रद्धालु और संशययुक्त व्यक्ति विनाश को प्राप्त होते हैं,101 जबकि ज्ञानरूपी नौका का आश्रय लेकर पापी-से-पापी व्यक्ति पापरूपी समुद्र से पार हो जाता है। 02 ज्ञानाअग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देती है। इस जगत् में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला अन्य कुछ नहीं है।104 वस्तुतः, सम्यग्ज्ञान ही सच्चे धर्म और सुख का कारण है। जब तक सम्यग्ज्ञान नहीं होता तब तक विकारों का विनाश होकर विचारों का विकास नहीं होता, इसीलिए दशवैकालिकसूत्र में स्पष्ट कहा है कि पहले ज्ञान है, फिर दया अर्थात् चारित्र।105 इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्यग्ज्ञान का स्थान चारित्र से भी पहले है। सम्यक्चारित्र - निश्चयदृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है। जैनदर्शन में चरित्र ही धर्म है- चारित्तं खलु धम्मो। इस धर्म के अहिंसा, संयम और तप- ये तीन भेद हैं। 107 उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है –'जो कर्म के चय (संचय) को रिक्त करे, वह चारित्र है।108 चरित्र की यही व्याख्या निशीथभाष्य में भी उपलब्ध होती है। 109 आध्यात्मिक-जीवन की पूर्णता चारित्र के माध्यम से ही प्राप्त 100 धम्मपद - 372 101 गीता-4/40 102 वही -4/36 103 वही -4/36 104 वही -4/36 105 पढमं णामं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए" - दशवैकालिकसूत्र 4/10 106 प्रवचनसार, गाथा 7 107 धम्मो मंगलमुक्किलै अहिंसा संजमो तवो। - दशवैकालिकसूत्र, 1/1 108 उत्तराध्ययनसूत्र, 28/33 109 निशीथभाष्य, उद्धत जैनदर्शन और कबीर का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 125 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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