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________________ 465 कहते हैं। समयसार की टीका में कहा गया है कि जीवादि जो नौ तत्त्व हैं, भूतार्थनय से उनको जानना एवं मानना ही सम्यग्दर्शन है।66 आधारभूत तथ्य को तत्त्व कहते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र, योगशास्त्र और नवतत्त्व-प्रकरण में भी नौ या सात तत्त्वों के अस्तित्व में सद्भावपूर्वक श्रद्धा रखना ही 'सम्यक्त्व' है। बृहद्रव्यसंग्रह के अनुसार – जीव आदि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है और वही आत्मा का स्वरूप है। आगे इसी सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि वीतराग सर्वज्ञ श्री जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए जो शुद्ध जीव आदि तत्त्व हैं, उनमें चल, मलिन व अवगाढ़ दोषों से रहित जो श्रद्धान है, रुचि है, अथवा, 'जो जिनेन्द्र ने कहा, वही सत्य है -इस प्रकार की निश्चयरूप बुद्धि का नाम सम्यग्दर्शन है और वह सम्यग्दर्शन अभेदनय से आत्मा का स्वरूप है, अर्थात् आत्मा का परिणाम है। आचारांगसूत्र में सम्यग्दर्शन शब्द आत्मानुभूति, आत्मसाक्षात्कार, साक्षीभाव आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में – व्यवहारनय से जीवादि तत्वों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, किन्तु निश्चयनय से आत्मा का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। जीवादीनि नवतत्त्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सम्यग्दर्शनम् - समयसार, 13 तहियाणं तु भावाणं, सव्भावे उवएसणं। भावेण सद्दहंतस्सए सम्मए तं वियाहिणं ।। - उत्तराध्ययनसूत्र 28/15 रूचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु, सम्यक्श्रद्धानमुच्यते . - योगशास्त्र, 19 (प्रथम प्रकाश) 69 जीवाइनवपत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं भावेण सद्दहतो, अयाणमाणेवि सम्मत्तं ।। - नवतत्त्वप्रकरण, गा. 51 70 जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु - बृहदद्रव्यसंग्रह, गाथा 41 (पूर्वार्ध) 1 'जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धजीवदितत्त्वविषये चलमलिनावगाढ़रहितत्वेन श्रद्धानं __ रूचिनिश्चयइदमेवेत्थमेवेति निश्चयबद्धिः सम्यग्दर्शनम् । “रूवमप्पणो तं तु तच्चाभेदनयेन रूपं स्वरूपं तु पुनः, कस्यात्मन आत्मपरिणाम इत्यर्थः। - बृहदद्रव्यसंग्रह, व्याख्या, (तृतीय अधिकार). गा. 41, पृ. 130 2 आचारांगसूत्र – 3/2/28 (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड-1, पृष्ठ-29) 731) जीवादीसद्दहण सम्मतं, जिणवरेहिं पण्णतं ववहाराणिच्छयदो; अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ।। - दर्शनपाहुड, 20 2) सर्वाथसिद्धि/तात्पर्यवृत्ति-155/220/11 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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