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________________ 463 को स्पष्ट करते हैं। धर्म के दो रूप माने गए हैं - 1. श्रुतधर्म, 2. चारित्रधर्म ।' श्रुतधर्म का एक अर्थ है – जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान और उनके प्रति श्रद्धा । चारित्रधर्म का अर्थ है – संयम और तप। चारित्रधर्म दो प्रकार का बताया गया है,58 एक अनगारधर्म और दूसरा आगारधर्म। अनगारधर्म श्रमण-धर्म या मुनिधर्म है, जबकि आगार-धर्म गृहस्थ या उपासकधर्म है। धर्म के सम्बन्ध में चाहे जितने ही मत बना लिए जाएं, परन्तु जब तक वे मोक्ष का निमित्त न बनें, तब तक वे एक तर्कजाल ही माने जाएंगे। आगमानुसार –धर्म मोक्ष का कारण तभी बन पाता है, जब वह सम्यक्त्व से युक्त हो। चाहे मुनि हो या श्रावक, धर्माचरण में सम्यक्त्व होना जरूरी है, तभी वह 'धर्मसंज्ञा' को प्राप्त कर पाता है, क्योंकि दान, ब्रह्मचर्य, उपवास, अनेक प्रकार के व्रत, यहाँ तक कि मुनिलिंग को भी धारण करना तभी सार्थक होता है, जब व्यक्ति सम्यक्त्व से संयुक्त हो। इसके बिना ये सब संसारवृद्धि के कारण होते हैं।60 धर्म का चरम लक्ष्य मुक्ति (मोक्ष) है और आत्मा की कर्मफल की विशुद्धता एवं मोह एवं क्षोभ से रहितता ही मोक्ष है। मोक्षरूपी मेरू पर पहुंचने के लिए रत्नत्रयरूपी सीढ़ियाँ चाहिए, तभी वह अपने गन्तव्य तक पहुंच सकता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहा गया है। सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान और सच्चा आचरण ही मोक्ष का मार्ग है। 7 स्थानांगसूत्र 2/1 58 वही, 2/1 59 क) एयारसदसभेयं धम्म सम्मत्तपुव्वयं मणियं। सागाराणगाराणं उत्तमं सुहसंपजुत्ते हि।। - बारह अनुप्रेक्षा, 68.. ख) न धर्मस्तद्विना क्वचित् । - पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध, 717 60 दाणं पूजा सील उपवासं बहुविहंपि खिवणंपि। सम्मजुदं मोक्खसुहं सम्मविणा दीहसंसारं।। - रयणसार, 10 61 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । - तत्त्वार्थसूत्र, 1/1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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