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________________ 462 इन कर्त्तव्यों में कुछ कर्त्तव्य स्वयं से संबंधित हैं तथा कुछ अन्य से। मार्दव, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य मूलतः वैयक्तिक सद्गुण हैं। क्षमा, आर्जव, सत्यादि सामाजिक-सद्गुण के साथ वैयक्तिक-सद्गुण भी हैं। चूंकि समाज के बीच में कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं हो सकती, इसलिए इन सद्गुणों को भी वैयक्तिक और सामाजिक दोनों कोटियों में रखा जा सकता है। ये एकान्तिक सद्गुण नहीं है। ___ धर्म के इन दसों लक्षणों में से प्रत्येक के साथ 'उत्तम' विशेषण लगाया जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि धर्म के यह दसों लक्षण 'धर्मसंज्ञा' को तभी प्राप्त कर पाएंगे, जबकि वे 'उत्तम' श्रेणी के होंगे। पूजा या ख्याति के लिए क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि को जीवन पद्धति में स्वीकार कर लेना कभी शुद्ध धर्म का स्वरूप नहीं है,54 चूंकि उनमें 'उत्तमता' हो ही नहीं सकती है, इसलिए ये धर्म नहीं होंगे। "अक्सर हम राग-द्वेष, घृणा, आसक्ति, ममत्व, तृष्णा, काम, क्रोध, अहंकार आदि को अधर्म (पाप) कहते हैं और क्षमा, शान्ति, अनासक्ति, निर्वेरता, वीतरागता, विरागता, निराकुलता आदि को धर्म कहते हैं। चूंकि क्षमा, आदि धर्म धारण करने से नए कर्मों का आना (आम्रव) तो बन्द हो ही जाता है, साथ ही पूर्व में बंधे कर्म भी निर्जरित होने लगते हैं और जीव को 'मोक्ष-पद' पाना सहज हो जाता है, इसी आशय से इन दसों को 'धर्म' कहा गया है। 3. रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) भी धर्म का स्वरूप हैं - जैनदर्शन में दस सामान्य धर्मों के अतिरिक्त कुछ विशेष धर्म भी हैं जो मुनियों और सामान्यजन के लिए अलग-अलग निर्धारित किए गए हैं। जो धर्म के स्वरूप 54 क) इष्ट प्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम्। - सर्वार्थसिद्धि, 9/6 ख) राजवार्त्तिक, 9/6/26 55 चारित्रसार, 58/1 56 धर्म का मर्म, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 16 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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