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हैं, परन्तु आनन्द जब प्रकट होता है, तो वह उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है और अन्ततः मुक्ति के सोपान तक पहुंचा देता है। वस्तुतः, सम्यक् आनन्द वही है, जो आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने में सहायक बने।
कन्हैयालाल लोढ़ा ने अपनी पुस्तक 'दुखःरहित सुख' 71 में सुख को विषय-सुख और आनन्द को आध्यात्मिकसुख कहा है। उन्होंने विषय-सुख और आध्यात्मिक-सुख की तुलना की है, जिसमें कुछ तथ्य इस प्रकार हैं -
विषय-सुख (सुख)
आध्यात्मिक-सुख (आनन्द)
विषयसुख क्षीण होता है। भोग्य 1 आध्यात्मिकसुख अक्षय होता है। विषयसामग्री व भोक्ता -दोनों के बने रहने विकार के त्याग से जितना सुख प्रकट पर भी प्रतिक्षण क्षीण होता है और हुआ है, उस अवस्था के बने रहते उस क्षीण होते-होते अंत में समाप्त हो सुख में क्षीणता नहीं आती। जाता है।
2 विषयभोग के सुख का अंत नीरसता 2 . इसमें सदा सरसता बनी रहती है।
में होता है। 3 यह अभावयुक्त होता है।
3 इसमें अभाव का अभाव होता है, अर्थात्
यह वैभव (संपन्नता) युक्त होता है। 4 यह जड़ता लाता है।
4 यह चिन्मय बनाता है।
5
यह प्रमाद उत्पन्न करता है।
5 यह जागरूक बनाता है।
6 इसके फलस्वरूप दुःख मिलता है।
6 यह सदा ही सुखमय रहता है।
7 यह बाधा (अंतराय) युक्त होता है।
7 इसमें बाधा उपस्थित नहीं होती, यह
सदा बना रहता है।
8 इसका अंत अवश्यंभावी है।
8 इसका अंत होना आवश्यक नहीं है, यह
अक्षय है, अनंत है। .
9
यह श्रम से मिलता है।
9 यह विश्राम से मिलता है।
" दुःखरहित सुख, कन्हैयालाल लोढ़ा, पृ. 53
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