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सुख और आनन्द का अन्तर -
पराधीनता व अभाव दुःख है, भौतिक-पदार्थों की प्राप्ति सुख है तथा विकारों से विमुक्ति ही आनन्द है। जहाँ विकार नहीं, वहाँ आनन्द-ही-आनन्द है। आनन्द कभी आकाश से नहीं गिरता और न ही पाताल से प्रकट होता है। वह तो आत्मा से प्रादुर्भूत सहज उपलब्धि है। सुख का आधार सत्ता नहीं, सत्य है। नीत्से ने सुख का आधार सत्ता को माना। फ्रायड की दृष्टि में सुख का मूल कारण 'काम' है। मार्क्स का अभिमत है कि 'अर्थ' के अभाव में सत्ता और काम -दोनों का कोई अस्तित्व नहीं है। इस संदर्भ में भगवान् महावीर ने कहा है – सुख न सत्ता में है, न काम में और न अर्थ में। सुख तो आत्मा में है, अपने आप में है। जैसे फूल की सुगन्ध फूल में है, शकर की मिठास शकर में है, दीपक का प्रकाश दीपक में है, वैसे ही आत्मा का सुख आत्मा में है और आत्मा का सुख ही आनन्द है। आत्मा आनंद का अनंत सागर है, सुख का अक्षय भण्डार है तथा निराकुलता व शान्ति का असीम कोष है।
लेकिन, आज परिस्थितियाँ इससे एकदम विपरीत हैं, जो जीवन आनंद का कोष है, वह आज दुःख/पीड़ा का महासागर बन गया है, क्योंकि मनुष्य अभाव में जी रहा है। जो उसके पास है, वह उसका आनंद नहीं उठाता और जो नहीं है उसके पीछे हमेशा भागता रहता है, जो अनुपलब्ध है, उसका दुःख सदा भोगता है। गीता शंकर भाष्य में कहा है -“विषय-सेवन की तृष्णा (लालसा) से इन्द्रियों का निवृत्त हो जाना ही वास्तविक सुख है। 68 बौद्धदर्शन के उदान में कहा गया हैछोटे-बड़े सभी प्राणियों के प्रति संयम और मित्रभाव का होना ही वास्तविक आनंद है। जो इस लोक में कामसुख है और जो परलोक में स्वर्ग के सुख हैं - वे सब तृष्णा के क्षय से होने वाले आध्यात्मिक-सुख की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं
68 इन्द्रियाणां विषयसेवातृष्णातो निवृत्तिः या तत् सुखम् । – गीता (शंकरभाष्य) 2/63 69 अब्यापज्जं सुखं लोकं प्राणभूतेसु संयमो. - उदान 2/1
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