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________________ 441 करने से आती है, अतएव सुखवाद की तार्किक-पराकाष्ठा यह है कि वैराग्य (वीतरागदशा) ही एकमात्र श्रेय है।2 ___ महाभारत में भी वासनामूलक एवं ऐन्द्रिक-सुखों को अत्यन्त निम्न कोटि का सुख कहा गया है। यही नहीं, महर्षि वेदव्यास कहते हैं –“बिना त्याग किए सुख नहीं मिलता, बिना त्याग के परमतत्त्व की उपलब्धि भी नहीं होती। बिना त्याग के अभय की प्राप्ति भी नहीं होती, अतः सब कुछ त्याग करके सुखी हो जाओ।"63 इस प्रकार, हम देखते हैं कि न केवल जैन परम्परा में वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी सुख को अपने एक विशिष्ट अर्थ में ही नैतिक-जीवन का साध्य माना गया है। अतः कहा जा सकता है कि जैन-विचारणा और सामान्य रूप से अन्य सभी भारतीयविचारणाओं में नैतिक-साध्य के रूप में सुख को स्वीकार किया गया है। . पाश्चात्य-सुखवाद की अवधारणा - पाश्चात्य-विचारकों में सुखवाद के सर्वप्रथम प्रवर्तक एरिस्टिप्यस थे। एरिस्टिप्यस के अनुसार, जीवन का चरम लक्ष्य भोग ही है। ज्ञान और सामाजिक संस्कृति की उपादेयता उनके द्वारा भोग-प्राप्ति पर ही अवलम्बित है। वे कहते हैं कि जीवन को शान्तिमय और सुखमय बनाने के लिए दर्शन के अध्ययन पर अत्यधिक बल दिया जाना चाहिए।” उनके अनुसार, दर्शन मानव-कल्याण का उपाय है, साधन है।64 डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोध प्रबन्ध में कहा है कि पाश्चात्य-विचारकों में अरस्तु का नाम अग्रगण्य है। अरस्तु के नैतिक-दर्शन में शुभ का प्रतिमान 'स्वर्णिम माध्य (Golden Mean) माना गया है। अरस्तु के अनुसार, प्रत्येक गुण अपनी मध्यावस्था में ही नैतिक-शुभ होता है। उसने सद्गुण और दुर्गुण की कसौटी के रूप में इसी 'स्वर्णिम माध्य' को स्वीकार किया है। सद्मार्ग मध्यममार्ग है, अर्थात् 621) नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ. 231 2) उद्धृत - जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन पृ. 126 6 महाभारत, शान्तिपर्व, 6583 नीतिशास्त्र, डॉ. एस.एन.एल. श्रीवास्तव पृष्ठ 37-39 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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