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________________ 440 तथा समकालीन विचारकों में ड्यूरेट ड्रेक आदि ने सुखवाद को विशुद्ध नैतिक आधार पर खड़ा किया है। नैतिक सुखवादी-विचारधारा की दूसरी मान्यता यह भी है कि वस्तुतः जो सुख काम्य है, वह वैयक्तिक नहीं, वरन् सामान्य सुख है। यह धारणा उपयोगितावाद के नाम से भी जानी जाती है। जैन-आचारदर्शन में नैतिक-सुखवाद के समर्थक कुछ तथ्य मिलते हैं। महावीर ने कई बार यह कहा है –“जिससे सुख हो वह करो। 60 इस कथन के आधार पर यह फलित निकाला जा सकता है कि महावीर नैतिक-सुखवाद के समर्थक थे। यदि हम जैन-नैतिकता को किसी विशेष अर्थ में सुखवाद के नाम से पुकारना उचित समझें, तो उसके नैतिक-आचरण का चरमादर्श अनाबाध सुख की उपलब्धि ही है -यही मानना होगा। अनाबाध सुख वस्तुतः आध्यात्मिक-आनन्द की वह अवस्था है, जिसमें हम शुद्ध एवं पूर्ण आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करते हैं। दुःख का कारण तनाव है और तनाव का कारण रागद्वेष है। जब आत्मा रागद्वेषरूप तनाव को समाप्त कर देती है और अर्हत् या वीतराग–अवस्था को प्राप्त कर लेती है, तो उसे इस वास्तविक सुख का लाभ होता है, जो वासनात्मक-सुखों की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक है। जैनागमों में कहा गया है कि वासनाओं की पूर्ति से प्राप्त होने वाले लौकिक-सुख वीतराग के सुख का अनन्तवां भाग भी नहीं होते, अर्थात् वीतराग के सुख की तुलना में लौकिक-सुख कुछ भी नहीं है। सुखवाद के अनुसार भी सुख मन या चित्त की शान्त अवस्था है। यह जितनी प्रगाढ़ चिरकालीन तथा निरन्तर हो, उतना ही सुख अधिक होता है। वैराग्य (वीतरागदशा) मनुष्य की ऐसी ही प्रगाढ़ चिरकालीन और निरन्तर शान्तवृत्ति है। यह वृत्ति कर्म करने से नहीं, वरन् कर्म का परिपालन करके एकान्त में चित्त को एकाग्र 9 कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज, पृ. 196 60 अहासुहं देवाणुपियं। - उपासकदशांगसूत्र 1/2 61 अध्यात्मतत्त्वालोक, पृ. 630 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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