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दुःखदायी लगता है, किन्तु यह सभी सुख वास्तविक सुख नहीं है, सुखाभास हैं । दुःख के बीज इसमें छिपे हैं। इसका परिणाम दुःख, कष्ट और पीड़ा ही है ।
9. संतोषानंद इसे आत्मानंद भी कह सकते हैं। प्रायः वस्तुओं को त्यागकर जो साधना - मार्ग की ओर बढ़ जाते हैं, आत्मचिंतन, प्रभु भजन, स्वाध्याय आदि में सुख तथा आनंद की अनुभूति कर वे संसार की लालसा से मुक्त होते हैं । ऐसे व्यक्ति बहुत विरले होते हैं। इनका लक्ष्य मोक्षाभिमुखी होता है । प्राणीमात्र का जितना भी प्रयास है, जितना भी पुरूषार्थ वह करता है, उसकी दो ही दिशाएं है— काम अथवा मोक्ष । कामनापूर्ति पतन का मार्ग है और कामना आदि से मुक्ति पाने का प्रयास उन्नति का मार्ग है, विशुद्धि का मार्ग है, सिद्धि का मार्ग है, मोक्ष का मार्ग है और शाश्वत सुख का मार्ग है, इसलिए सुख को व्यवहार के प्रेरक के रूप में व्याख्यायित किया गया है ।
दुःख व्यवहार के निवर्त्तक के रूप में
वस्तुतः, ज्ञानियों ने दुःख को मुक्ति का कारण माना है। क्योंकि दुःख से निवृत्ति होने पर ही सुख की प्राप्ति होती है । इसलिए दुःख को व्यवहार के निवर्त्तक के रूप में माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में जन्म, जरा, रोग और मृत्यु को दुःखरूप माना है और संपूर्ण संसार को ही दुःखमय कहा है। पंचसूत्र के प्रथम अध्याय में कहा गया है - यह संसार, जन्म, जरा, मरण, संयोग, वियोग, रोग, शोक आदि दुःखस्वरूप हैं। परिणाम में भी जन्म-मरणादि दुःख उत्पन्न करने वाला है और दुःख की परम्परा का जनक है, अर्थात् इसके आगे भी भवभ्रमण एवं दुःखों का प्रवाह चालू ही रहता है । दुःख के निवर्त्तक के लिए सर्वप्रथम दुःख की उत्पत्ति के कारणों को समझकर ही दुःख से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। 36
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दुक्खरूवे, दुक्खफले, दुक्खाणुबंधे।
36 समुप्पायमजाणंता, कहं नायंति संवरं ?
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पंचसूत्र, गा. 1/2
- सूत्रकृतांगसूत्र 1/1/3/10
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