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________________ 432 अपने को सुखी मानता है। यदि इसमें थोड़ी भी कमी हुई तो दुःखी हो जाता है। 3. जीवनानंद – व्यक्ति जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं का उपभोग करके आनंद मनाता है। वह चाहता है कि सुख-सुविधा के सभी साधन उसे उपलब्ध हों। इसमें कमी आते ही वह हीन भावना से ग्रस्त होकर संसार का सबसे सर्वाधिक दुःखी व्यक्ति अपने को मानता है। 4. विनोदानंद – कुछ व्यक्तियों को खेलकूद, मनोरंजन, हास-परिहास आदि में आनंद आता है। जब विनोद के लिए व्यक्ति ताश, चौपड़, जुआ आदि खेलता है, तो हार जाने पर स्वयं दुःखी होता है और यह विनोद व्यसन बन गया, तो संपूर्ण जीवन ही दुःखी हो जाता है, बर्बाद हो जाता है और ऐसा व्यक्ति पतन के गर्त में गिर जाता है। 5. रौद्रानंद - रौद्रानंद तब होता है, जब व्यक्ति दूसरे प्राणियों को दुःख देकर सुख मनाता है। 6. महत्त्वानंद - प्रत्येक मानव की भावना होती है कि समाज के, परिवार के, जाति के और यहाँ तक कि संसार के सभी लोग उसे महत्त्वपूर्ण माने, उसका आदर करें, उसकी आज्ञा का पालन करें, सभी उसकी प्रशंसा करें। यदि किसी ने उसकी आज्ञा की अवहेलना कर दी, तो वह दुःखी हो जाता है। 7. विषयानंद – विषयानंद का अभिप्राय है – पांचों इन्द्रियों और मन के सुखों को सुख मानना, इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति की अभिलाषा। इस आनंद का दायरा इतना विस्तृत है कि सभी प्रकार के भौतिक सुख इसमें समा जाते हैं, किन्तु इस सुख की प्राप्ति के लिए सबल शरीर, इन्द्रिय, धन आदि आवश्यक हैं। यही कारण है कि आज के युग में धन के लिए आपाधापी मची हुई है। आज का मानव बेतहाशा इन्द्रिय-सुखों के पीछे भाग रहा है। 8. स्वतंत्रतानंद – मानव ही नहीं, पशु भी स्वतंत्रता चाहता है और इसी में आनंद मनाता है। वह किसी भी प्रकार का बंधन–मर्यादा नहीं चाहता। बंधन उसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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