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________________ 396 3. तृष्णा का मूल लोभ है - इच्छा, स्पृहा, वासना और तृष्णा यद्यपि पर्यायवाची शब्द प्रतीत होते हैं, परन्तु इनमें सूक्ष्म अंतर भी है। वस्तु का चाहना- इच्छा है। अत्यावश्यक वस्तु की इच्छास्पृहा है। प्राप्त वस्तु को टिकाए रखने की स्पृहा – वासना है और टिकी वस्तु को बढ़ाने की वासना- तृष्णा है। जो तृष्णा का गुलाम हो जाता है, वह जीवनभर दौड़-धूप करता रहता है। कभी शांति या सुख का अनुभव उसे नहीं हो पाता। धन ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है, परंतु जीवनभर परिश्रम करके इकट्ठे किए गए समस्त धन को वह यहीं छोड़ जाता है। अंतिम सांस छूटते ही धन भी छूट जाता है, परंतु तृष्णा तरुणी बनी रहती है। आगाह अपनी मौत से, कोई बशर नहीं। सामान सौ बरसों का है पल की खबर नहीं।। यह तृष्णा व्यक्ति को कर्त्तव्य से विमुख कर देती है, धर्म के मार्ग से दूर ले जाती है, असंतोष के समुन्दर में डुबो देती है और अशांति के जंगल में भटका देती है। उत्तराध्ययनसूत्र में 'कपिल ब्राह्मण 54 का उदाहरण प्रसिद्ध है -उसने दो माशा स्वर्ण की प्राप्ति की इच्छा राजा के समक्ष प्रकट की। राजा ने प्रसन्न होकर कहा – “हे विप्र! दो माशा ही नहीं, तुम्हारी इच्छानुसार धन (स्वर्ण) तुम्हें प्राप्त होगा। कहो! कितना चाहिए ?" कपिल क्षणभर स्तब्ध रह गया। उसके मन में तृष्णा की तरंगें तीव्र वेग से उठने लगीं। कितना मांगना ? दो माशा, नहीं। सौ स्वर्णमुद्रा ? नहीं। एक हजार स्वर्णमुद्रा ? नहीं। एक लाख स्वर्ण मुद्रा ? नहीं, नहीं। आधा राज्य ? नहीं। क्या सम्पूर्ण राज्य ? हाँ हाँ यही ठीक है। तुरन्त विवेक ने लोभ को थप्पड़ लगाया। ओ हो! कैसा मेरा लोभ ? कैसी मेरी तृष्णा ? मन तत्त्व-चिन्तन की श्रेणी पर आरुढ़ हो गया। यह तृष्णा तो एक विष-लता के समान है, जो भयंकर है और भयंकर फल " तृष्णां न जीर्णा वयमेव जीर्णाः । 54 उत्तराध्ययनसूत्र अ. 8 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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