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- “जो सदा संग्रह करने की इच्छा मन में रखता है, वह गृहस्थ ही है, प्रव्रजित (साधु) नहीं। जितनी लोभवृत्ति या तृष्णा बढ़ती है, उतनी ही संग्रहवृत्ति बढ़ती जाती है और जितनी संग्रहवृत्ति में वृद्धि होती है, उतना ही दुःख में वृद्धि होती है।49
2. लोभ एक सामाजिक-हिंसा -
लोभवृत्ति एक सामाजिक-हिंसा है। लोभवृत्ति के कारण ही संग्रह की भावना प्रबल होती है। वस्तुतः, यह स्पष्ट है कि 'संग्रह' हिंसा से ही प्रत्युत्पन्न होता है, क्योंकि बिना शोषण के संग्रह असम्भव है। व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन करता है। समाज में उत्पन्न दहेजप्रथा लोभ का ही एक रूप है। लोभ से ग्रस्त वर-पक्ष वधू पक्ष से धन (दहेज) की याचना करता है, यदि धनपूर्ति नहीं हुई तो वधु को शब्दों के बाणों से प्रताड़ित किया जाता है, उससे मारपीट की जाती है और कई बार तो केरोसीन डालकर जिंदा जला दिया भी जाता है। समाज में उत्पन्न इस कुप्रथा का मूल यदि देखें, तो वह लोभ ही है। लोभ जब तक समाज में व्याप्त रहेगा, तब तक हिंसा का साम्राज्य समाज में सदा बढ़ेगा। लोभान्ध व्यक्ति स्वार्थ की सिद्धि के लिए, धन की प्राप्ति के लिए क्रूर बनकर किसी की भी हत्या कर डालता है, चाहे वह माता हो, पिता हो, पुत्र हो, बहिन हो, मित्र हो, मालिक हो, या सगा भाई । धन के लिए आतुर रहने वाले तो अपने गुरुदेव तक की परवाह नहीं करते हैं। यथावसर संचित धन को तो दूसरे उड़ा लेते हैं और संग्रही को अपने पापकर्मों का दुष्कर फल भोगना पड़ता है। 2
49 ये तण्हं बढेन्ति ते उपधिं वड्ढेन्ति।
ये उपधिं वडढेन्ति ते दुक्ख वड्ढेन्ति।। - संयुत्तनिकाय 2/12/66 50 मातरं पितरं भ्रातरं, स्वसारं वा सुहर।
लोभाविष्ठो नरो हन्ति, स्वामिनं वा सहोदरम् ।। - भोजप्रबन्धः । 51 अर्थातुराणां न गुरून बन्धुः । 52 अन्ने हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहि किच्चती। - सूत्रकृतांग 1/9/4
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