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________________ 4. अप्रतिष्ठित बाह्य - निमित्त नहीं होने पर अन्तरंग में लोभ-मोहनीयकर्म के उदय से इष्ट वस्तु को प्राप्त करने के लिए जो उद्विग्नता - चंचलता बनी रहती है, वह अप्रतिष्ठितलोभ है। अप्रतिष्ठित लोभ में व्यक्ति का एकमात्र उद्देश्य धन का संचय होता है ।, जैसे - स्वास्थ्य लाभ के लिए मंहगी औषधि नहीं खरीदना, भले ही मृत्यु हो जाए, पर धन खर्च नहीं करना, इसीलिए यह कहावत प्रसिद्ध है 'चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए'। आगे हम लोभ के दुष्परिणामों की और लोभ - विजय के उपायों की चर्चा करेंगे। - Jain Education International लोभ के दुष्परिणाम दशवैकालिकसूत्र के आठवें अध्ययन में कहा गया है - "क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान (अहंकार) विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सद्गुणों का नाश कर देता है । "45 यहाँ लोभ को सर्व सद्गुणविनाशक कहा गया है। लोभ - प्रवृत्ति से वर्त्तमान और आगामी दोनों जीवन नष्ट होते हैं, क्योंकि लोभ के कारण ही तृष्णा उत्पन्न होती है। तृष्णा में अंधा बना व्यक्ति क्या उचित है, क्या अनुचित है इसका विवेक खोकर दुष्कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। लोभ के कारण आकुल-व्याकुल बना मन कामनाओं की पूर्ति के लिए सब कुछ कर गुजरने का मानस बना लेता है, भले ही वे सत्ता, सम्पत्ति, सुन्दरी आदि किसी से भी सम्बन्धित हों। लोभ की पूर्ति न होने पर वह हत्या और आत्महत्या के स्तर तक पहुंच जाता है । सूत्रकृतांग में कहा है - "निर्भय अकेला विचरने वाला सिंह भी मांस के लोभ से जाल में फंस जाता है, उसी प्रकार आसक्तिवश मनुष्य भी लोभ में फंसकर अपना विनाश कर लेता है | 46 - - 45 कोहो पीइं पणासेइ माणो विणय णासणो । माया मित्ताणि णासेइ, लोभो सव्वाविणासणो ।। 46 सीहं जहा व कुणिमेणं, निब्भयमेगं चरंति पासेणं । - 393 - दशवैकालिकसूत्र, 8/38 - सूत्रकृतांगसूत्र 1/4/1/8 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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