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________________ 386 करने की जो-जो आकांक्षा जीव में उत्पन्न होती हैं वे सभी लोभ की ही पर्याय कहलाती हैं। लोभ के चार भेद - 1. अनंतानुबन्धी-लोभ, 2. अप्रत्याख्यानी-लोभ 3. प्रत्याख्यानी-लोभ 4. संज्वलन-लोभ 1. अनंतानुबंधी-लोभ - ___ अनन्तानुबंधी-लोभ को किरमिची के रंग की उपमा दी गई है। वस्त्र फट जाता है, पर किरमिची का पक्का रंग नहीं छूटता, उसी प्रकार, अनन्तानुबंधी लोभ से संक्लिष्ट परिणामों वाला जीव किसी भी उपाय से लोभ नहीं छोड़ता है। जिजीविषा, स्वस्थता, संयोग-प्राप्ति का लोभ अनन्तानुबन्धी-लोभ है। जब जीव देह को 'मैं' स्वरूप मानता है, तब वह जीने की आकांक्षा, आरोग्य की वांछा, इष्ट पदार्थों के संयोग की कामना, प्रिय व्यक्तियों से सम्बन्ध बनाने की भावना रखता है। वह मम्मण सेठ की भांति कभी भी तृप्ति और संतोष धारण नहीं करता है। यह सम्यक्त्व से जीव को दूर रखता है और नरक-गति का कारण बनता है। 2. अप्रत्याख्यानी-लोभ - अप्रत्याख्यानी-लोभ को काजल के काले दाग की उपमा दी गई है। जिस प्रकार काजल के काले धब्बे अत्यधिक परिश्रम से मिटते हैं, उसी प्रकार बहुत प्रयत्न करने पर एवं दिन-रात समझाने से ही अप्रत्याख्यानी-लोभ हृदय से दूर होता है। अप्रत्याख्यानी-लोभ व्रत-नियम में बाधा उत्पन्न करता है। क्षायिक-सम्यक्त्वी वासुदेव श्रीकृष्ण ने अपने राज्य में घोषणा की थी, 'जो भी नगरवासी प्रभु नेमिनाथ के चरणों में संयम ग्रहण करे, उसके कुटुम्ब-पालन का दायित्व मेरा है। वे अपने निकटस्थ 39 क) भगवतीसूत्र 15/5/5 ख) प्रथम कर्मग्रंथ, गाथा 20 ग) स्थानांगसूत्र, 4/87 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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