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________________ 342 जैसे बांस का फल उसी के विनाश के लिए होता है। अतः मान के कारण मनुष्य साधना की ओर प्रगति नहीं कर सकता। ... 2. पाप का मूल अभिमान - __ तुलसीदासजी ने कहा है - "दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान", अभिमानी व्यक्ति स्वयं को सब कुछ समझता है। उसे अपने सामने अन्य सभी लोग बौने दिखाई देते हैं। अभिमानी जमाली ने भगवान महावीर स्वामी के सिद्धांतों को भी गलत माना और कहा कि वह जो कहता है, वही सच और सही है। कडे-कडे -यही सत्य है, परमात्मा का सिद्धान्त –'कडेमाणे कडे' झूठा है। जमाली अभिमान के अधीन बन गए और उनका पतन हो गया। मद आते ही आत्मा पतन की ओर बढ़ती चली जाती है और अहंकार से चिकने धर्मों का बंध होता है। 3. अभिमान से नीच गति की प्राप्ति - जो अभिमान करता है, अपने कुल का मान करता है, उसे नीच गति की प्राप्ति होती है। भगवान् महावीर स्वामी ने मरीचि के भव में अभिमान किया था ..... मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती, ....मैं प्रथम वासुदेव बनूंगा, अहो! मेरा कुल उत्तम है। कुल के अभिमान के कारण मरीचि को महावीर के भव में देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में अवतरित होना पड़ा। उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा है- 'माणेण अहमागई3 अर्थात् मान के कारण ही नीच गति प्राप्त होती है। 49 उत्तराध्ययन सूत्र 9/1/1 50 भगवतीसूत्र श.1/उ.1 1 ण बाहिरं परिभवे, अत्ताणं ण समुक्कसे __ सुयलाभे ण मज्जिज्जा, जच्चा तवस्सिबुद्धिए – दशवैकालिकसूत्र 8/30 52 श्री कल्पसूत्र, महावीर प्रभु के सत्ताईस भव 53 उत्तराध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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