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दूसरों को परछाई के समान तुच्छ समझता है। ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्य का कथन है - "अभिमानी विनय का उल्लंघन करता है और स्वेच्छाचार में प्रवर्तन करता है।"43
योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने कहा है – “मान विनय, श्रुत और सदाचार का हनन करने वाला है, धर्म, अर्थ और काम का घातक है, विवेकरूपी चक्षु को नष्ट करने वाला है।" मान का मोटा अर्थ "मैं" की भावना होना है। अहंकार से ही अभिमान, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि मानसिक दोष उत्पन्न होते हैं। अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ समझना और स्वयं को अधिक महत्त्व देना अहंकार होता है। यह बुद्धि और विवेक को नष्ट करता है तथा अपने मुकाबले दूसरों को तुच्छ समझने की भावना पैदा करता है। अज्ञानी जीव के जब पुण्य का उदय होता है, तब अनुकूल संयोगों की प्राप्ति में मान-मनोविकार का उदय विशेष रूप से होता है। उच्च-कुल, स्वस्थ्य शरीर, लावण्यवती स्त्री, प्रतिभाशाली सन्तान, सुख-सुविधा, समाज में सत्कार-सम्मान, कार्य में प्रशंसा, कलाकौशल में प्रवीणता आदि कारणों से अभिमान आकाश को छूने लगता है। तप, ज्ञान आदि शक्तियों की प्राप्ति अज्ञानावस्था में मदान्ध बना देती है। अभिमानी के पांव धरती पर नहीं टिकते। वह अपने समक्ष अन्य को तुच्छ मानता है। दर्प एवं दीनता -दोनों मान हैं। प्राप्ति में दर्प और अभाव में दीनता होती है। अपने आपको बड़ा या श्रेष्ठ मानने की भांति अपने आपको तुच्छ मानना भी अहंकार है।
अहंकारी स्वयं को ऊँचा प्रदर्शित करने हेतु अन्य व्यक्तियों का अवर्णवाद (निन्दा) करता है। अन्य व्यक्तियों का तिरस्कार कर उन्हें शत्रु बना लेता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि संसार में अपने समय की बड़ी से बड़ी हस्तियों का अहंकार भी समय आने पर चूर-चूर हुआ है, उन्हें अपमान और तिरस्कार सहन करना पड़ा। अहंकार का जब अतिरेक हो जाता है, तब दो और चार जैसी सीधी
42 अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं – सूत्रकृतांगसूत्र, अ.13, गाथा 8 43 करोत्युद्धतधीर्मानाद्विनयाचारलघनम्, ज्ञानार्णव, सर्ग 19, गाथा 53 44 विनय-श्रुत-शीलानां त्रिवर्गस्य च घातकः । विवेक-लोचनं लुम्पन्, मानोऽन्धंकरणो नृणाम् ।। - योगशास्त्र, 4/12
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