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________________ 333 पामर, तुच्छ प्राणी हूँ, आहारलुब्ध जीव हूँ, अत: एक दिन के लिए भी आहार-त्याग नहीं कर पाता। समता के बल से मुनि उसी समय केवलज्ञानी बने। लाभमद - पुण्ययोग जब प्रबल होता है; तब पग-पग पर सफलता की विजयमाला मिलती है। अपने पुरुषार्थ से कमाए हुए लाभ पर व्यक्ति को गर्व होता है। कई बार अचानक लाभ हो जाने पर भी व्यक्ति घमण्डी हो जाता है, इस कारण वह दूसरों का अपमान भी कर देता है। लाभमद पतन का कारण है। लाभ का सदुपयोग हो, तो ही वृद्धि को प्राप्त होता है, वरना नष्ट हो जाता है, अतः लाभमद त्याज्य है। लाभ लोभ को बढ़ाता है। कहा भी है – लाहा लोहो पवड्ढई – उत्तराध्ययनसूत्र 8/17 सुभूम चक्रवर्ती 29 षट्खण्डाधिपति थे। चक्रवर्ती पदभोक्ता, चौदह रत्नों के स्वामी सुभूम को अतुल सम्पदा प्राप्त होने पर भी संतोष नहीं था। सप्तम खण्ड जीतने की उनकी भावना बलवती बनने लगी। देववाणी से इन्कार होने पर भी विजयोन्माद में उनके कदम बढ़ चले। अथाह जलराशि पर तैरता देवाधिष्ठित जलयान – अचानक एक देव के मन में विचार आया – यदि मैं कुछ क्षणों के लिए अपना स्थान छोड़ दूं, तो क्या हानि हो ? यही विचार उन समस्त देवों के मन में उसी समय आया, जिन्होंने जहाज संभाला हुआ था। देवों के जहाज से हटते ही वह जलयान सागर की अतल गहराई में जा पहुंचा और सातवें खण्ड की विजय का स्वप्न लिए सुभूम चक्रवर्ती अगली जीवन-यात्रा पर चल पड़ा। ऐश्वर्यमद - धन, धान्य, जमीन, जायदाद आदि का मद करना ऐश्वर्यमद है। ए चीजें अस्थायी हैं; सदैव बनी नहीं रहती, अतः इनका मद नहीं करना चाहिए। सम्पत्ति व 29 कथा-संग्रह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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