SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सब शास्त्रों का अध्ययन कर षट्दर्शन के पारगामी बने । काशी में विद्याभ्यास कर उन्होंने पाँच सौ पण्डितों को वाद में पराजित किया । शब्द - विद्या की विशालता, बुद्धि की प्रबलता, तर्कशक्ति की प्रखरता, वक्तृत्वकला में वाचालता आदि अनेक बाह्य-शक्तियों का बल प्राप्त होने पर वे गर्विष्ठ बन गए । प्रवचन - सभा में वे अपने शक्ति- प्रदर्शनरूप पाँच-पाँच ध्वजा अपने समक्ष रखते थे। एक बहन ने वंदन कर उनसे पूछा "उपाध्यायजी ! गौतम स्वामी कितने विद्वान थे ?" यशोविजय जी गंभीर स्वर में कहने लगे "वे तो महाविद्वान् थे । वे ज्ञान के सिन्धु थे, हम तो बिन्दु भी नहीं हैं ।" बहन ने हाथ जोड़कर नम्र निवेदन किया "प्रभो! फिर वे अपनी व्याख्यान सभा में कितनी ध्वजाएँ रखते थे ?" सहज भाषा में किए गए इस प्रश्न ने श्री यशोविजयजी को झकझोर दिया। उन्हें अपने अहंकार का बोध हुआ । तपमद - तप अपूर्व कल्पवृक्ष है, मोक्ष - सुख की प्राप्ति इसका फल है, पर तप का मद करना अच्छा नहीं है। कुछ तपस्याएँ करके व्यक्ति अपने को तपस्वी समझने लगता है, जो विकृति का कारण है । घमण्ड से तपस्या करने वालों की जो शारीरिक - शक्ति है, वह क्षणभर में ही समाप्त हो जाती है। करोड़ों की कीमत का माल कौड़ियों में बिक जाता है। तपस्वियों की निन्दा करना, आशातना करना भी तपमद की कोटि में आता है। कुरगडु मुनि को क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से वे भूख को सहन नहीं कर सकते थे। संवत्सरी जैसे पर्वदिवस में भी उन्होंने चावल का आहार लेकर मर्यादा के अनुसार सभी मुनियों को आहार के लिए निमन्त्रित किया । मासक्षमण तपस्वी मुनिवृन्द तपस्या के अहंकार से ग्रस्त था । एक मुनि ने क्रुद्ध होकर आहार पर थूकते हुए कहा- “धिक् ! संवत्सरी को भी खाने बैठ गए।" इस तिरस्कार से भी मुनि कुरगडु विचलित नहीं हुए, अपितु मुनि के थूक को घी मानकर चावल में मिला लिया। वे विचार करने लगे 'अहो! तपस्वी मुनि का प्रसाद प्राप्त हुआ है । मैं तो अधम, 28 कथा संग्रह 332 Jain Education International — For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy