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________________ 305 क्रोध के विभिन्न रूप - जैनदर्शन में शास्त्रकारों ने पाप के अठारह स्थान बताए हैं, जो आत्मा का पतन करते हैं। उनमें छठवां स्थान क्रोध का है। मोहनीयकर्म-प्रकृति होने के कारण जब इसका उदय होता है, तो कार्य-अकार्य का विवेक नहीं रहता। यह व्यक्ति की प्रकृति को क्रूर बना देता है। क्रोध के आवेश में आकर प्राणी अपने माता-पिता, भाई-भगिनी, पुत्र-पुत्री, स्वामी-सेवक, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य आदि आत्मीयजनों को भी पीड़ा देने में संकोच नहीं करता है। कदाचित्, अत्यन्त कुपित व्यक्ति आत्मघात भी कर बैठता है। इस कारण, क्रोध को चाण्डाल की उपमा दी गई है। उत्तराध्ययनसूत्र 49 के तेइसवें अध्ययन में केशी स्वामी ने कहा है - संपज्जलिया घोरा अग्गी चिट्टइ, गोयमा। अर्थात् हे गौतम! जलती हुई और भयंकर अग्नि हृदय में स्थित है, यह अग्नि और कोई नहीं, क्रोध की ही अग्नि है। जब यह आग भड़क उठती है, तो क्षमा, दया, शील, संतोष, तप, संयम, ज्ञान आदि उत्तमोत्तम गुणों को जलाकर भस्म कर देती है, उनका नाश हो जाता है, चेतन पर मिथ्यात्व की कालिमा चढ़ा देती है। __ जैन-विचार में सामान्यतया क्रोध के दो रूप माने गए हैं - 1. द्रव्य-क्रोध और 2. भाव-क्रोध। द्रव्य-क्रोध को आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्रोध का आंगिकपक्ष कहा जा सकता है, जिसके कारण क्रोध में होने वाले शारीरिक-परिवर्तन होते हैं। द्रव्य क्रोध के उत्पन्न होने पर शारीरिक, मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। शरीर में अनेक परिवर्तन होते हैं; जैसे - चेहरे का तमतमाना, आँखें लाल होना, भृकुटि चढ़ना, होठ 48 पासम्मि बहिणिमायं, सिसुंपि हणेइ कोहंधो – वसुनन्दि श्रावकाचार, 66 49 उत्तराध्ययनसूत्र, 23/50 5° क्रुद्धो ....... सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज । – प्रश्नव्याकरणसूत्र 2/2 511) भगवतीसूत्र 12/5/2 2) जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ.सागरमल जैन, पृ. 500 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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