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________________ 294 गीता में श्रीकृष्ण ने काम, क्रोध तथा लोभ को आत्मा के मूल स्वभाव का नाश करने वाला नरक का द्वार बताया है। क्रोधवृत्ति से होने वाली हानि की चर्चा करते हुए कहा गया है -"क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से विवेक-शक्ति और आत्म-सजगता नष्ट हो जाती है, आत्मसजगता (स्मृति) के अभाव में विवेक नष्ट हो जाता है, और विवेक-शक्ति के नाश से सर्वनाश हो जाता है। 13 क्रोध से संबंधित विवेचना और स्वरूप को बौद्धदर्शन में विस्तार से बताया गया है। इतिवृत्तक में महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा है –जिस क्रोध से क्रोधी दुर्गति को प्राप्त होता है, योगी उस क्रोध को छोड़ देते हैं, अतः वे फिर कभी इस संसार में नहीं आते, इसलिए क्रोध को जड़ से उखाड़ कर फेंक देना चाहिए। 14 अंगुत्तरनिकाय में क्रोधी मनुष्य की उपमा सर्प से दी गई है। 15 संयुत्तनिकाय में दो-तीन ऐसे प्रसंग प्राप्त होते हैं, जिनमें तथागत को क्रोध करने का निमित्त प्राप्त हुआ, किन्तु उन्होंने क्रोध नहीं किया। भारद्वाज-गोत्रीय व्यक्ति क्रुद्ध होकर तथागत के पास आया और प्रश्न किया - “किसका नाश कर व्यक्ति सुख से सोता है ?" “किसका नाश कर शोक नहीं करता है ?" "किस एक धर्म का वध करना - हे गौतम! आपको रुचता है ?" तथागत बुद्ध ने प्रत्युत्तर दिया - __ "क्रोध का नाशकर सुख से सोना, क्रोध का नाशकर शोकमुक्त होना, दुःख के मूल क्रोध का वध करना, हे ब्राह्मण ! मुझे बड़ा अच्छा लगता है।" इसी प्रकार, एक क्रुद्ध व्यक्ति बुद्ध को कोसता हुआ गालियाँ देते जा रहा था। गालियाँ देने पर भी वे शान्त बने रहे और उस व्यक्ति को कहा – “भद्र! तुम किसी 12 गीता, अध्याय 16/श्लोक 21 13 गीता, अध्याय 2, श्लोक 21 " इतिवुत्तक, पहला निपात, पहला वर्ग, पृ.2 15 अंगुत्तरनिकाय, द्वितीय भाग, पृ. 108-109 " संयुतनिकाय, पहला भाग, अनु. भिक्षु जगदीश काश्यप, भिक्षु धर्मरक्षित, संयुत 7, पृ. 129 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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