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________________ रूप से परिलक्षित होती है। इस प्रकार, आहार आदि की मूल प्रवृत्तियों के साथ मनुष्य में विवेकशीलता है । यही कारण है कि जैनदर्शन संज्ञा में विवेक और वासना - दोनों को स्वीकार करता है । 8 प्राणी-जगत् में आसक्ति या आकांक्षा का मूल कारण परिग्रह - संज्ञा है । परिग्रह - संज्ञा के कारण ही जीव सुख की प्राप्ति का और दुःख की निवृत्ति का प्रयत्न करते हैं । सुख की प्राप्ति की चाह ही प्राणी - व्यवहार की प्रेरक है। चींटी रहने के लिए मिट्टी का टीला बनाती है, तो चूहे, साँप, छछूंदर आदि बिल बनाते हैं, जंगली पशु गुफाओं और कंदराओं में अपने रहने के लिए जगह खोजते हैं और मनुष्य अपने लिए मकान एवं बंगलों का निर्माण करते हैं। ऐसा क्यों ? क्योंकि प्राणीमात्र की यह इच्छा होती है कि वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सुखपूर्वक रहे। वे घर इसलिए भी बनाते हैं कि शीत, उष्ण एवं वर्षाकाल में वे सुरक्षित रह सकें, या फिर कोई बलवान प्राणी उन पर आक्रमण करे तो वे अपने को सुरक्षित रख सकें । इस भय के कारण भी वे अपने लिए अनुकूल जगह की खोज करते हैं। आहार आदि चार संज्ञाएँ व्यक्त या दृश्य हैं, परन्तु उनका मूल तो व्यक्ति की चेतना में होता है। जिसे अवचेतन या अचेतन मन कहा जाता है । वही व्यक्ति की जीवन-शैली को सतत दिशा देता रहता है । क्रोधादि कषायों एवं नोकषायों से सम्बन्धित जो मानसिक - संज्ञाएँ हैं, वे ही कर्मों के बंध का मूल कारण हैं । प्राणी विषय - कषायों में पड़कर भवभ्रमण को बढ़ाता है एवं लक्ष्य से भटक जाता है। यहाँ तक कि जब जीव काम, वासना, क्रोध, लोभ आदि संज्ञाओं के वशीभूत हो जाता है, तो वह पशुतुल्य व्यवहार करता है। उसे हित-अहित का भान ही नहीं रहता। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि प्राणीयव्यवहार की प्रेरक होने से संज्ञाओं का हमारे जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। संज्ञा चाहे विवेकात्मक हो या वासनात्मक, उनका हमारे व्यवहार पर बहुत अधिक प्रभाव होता है, क्योंकि वे प्राणीय - व्यवहार की प्रेरक हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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