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शिक्षा मनोविज्ञान, बाल-मनोविज्ञान, काम-मनोविज्ञान आदि में प्राणियों की इन मूलवृत्तियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। जैनदर्शन की ये संज्ञाएं वस्तुतः आधुनिक मनोविज्ञान की मूल-वृत्तियों से बहुत कुछ समानता रखती हैं, जो प्राणी की आन्तरिक-मनोवृत्ति और बाह्य-प्रवृत्ति दोनों को सूचित करती हैं। जिससे प्राणी की जीवन-शैली का भी भलीभांति अध्ययन हो सकता है। इन संज्ञाओं के अध्ययन द्वारा मनुष्य या किसी भी प्राणी की प्रवृत्तियों के प्रेरक-तत्त्व का पता लगाकर, उसके जीवन में सुधार या परिवर्तन लाया जा सकता है। इसी दृष्टि से संज्ञाओं के अध्ययन का जीवन में बहुत महत्त्व है। स्वयं की वृत्तियों को टटोलकर और आवश्यकतानुसार उसमें संशोधन-परिवर्द्धन करके हम आत्म-चिकित्सा अर्थात् आत्म–शोधन कर सकते हैं। अतीत काल से आज तक प्रत्येक प्राणी प्रतिकूल परिवेश का त्याग कर अनुकूल परिवेश के साथ समायोजन करता है और इस प्रकार अनुकूल परिवेश में जीना चाहता है, किन्तु यहाँ प्रश्न है -
1. वह ऐसा क्यों करता है ? 2. किस प्रकार करता है ? 3. कब तक करता है ?
उपर्युक्त सभी प्रश्न हमें एक बार यह सोचने को विवश करते हैं कि इनके पीछे कौन-सा तत्त्व है। वस्तुतः, उनके मूल में जो तत्त्व है, वही 'संज्ञा' है, और पाश्चात्य-मनोविज्ञान उसे ही मूल-प्रवृत्ति कहता है। मनुष्य एक विचारशील प्राणी है, इसलिए चिन्तन और मनन करना उसका स्वभाव है। चिन्तन-मनन की योग्यता से ही आचरण में विवेकशीलता प्रकट होती है। विवेकपूर्ण आचरण में ही मानव-जीवन की महत्ता है। यों तो आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि सामान्य प्रवृत्तियाँ मनुष्य और पशु सब में होती हैं, किन्तु अपनी विवेक-शक्ति के कारण ही मनुष्य उचित या अनुचित का भेद कर सकता है। ज्ञान न्यूनाधिक रूप में एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में होता है, फिर भी संज्ञी-प्राणियों में विवेक-शक्ति स्पष्ट
12 'आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतद् पशुभिः नराणाम् ।
ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो ज्ञानेनहीना नर पशुभिः समाना।। - धर्म का मर्म, पृ. 38
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