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________________ 250 अंतरंग-परिग्रह के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग -ये पांच कारण बताए हैं। 2 आगम के व्याख्या-साहित्य में परिग्रह के भेद-प्रभेदों की विचार-चर्चा करते हुए चौदह अंतरंग-परिग्रह बताए गए हैं। मिथ्यात्व, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और वेद - ये अन्तरंग-परिग्रह के चौदह भेद हैं। कहीं-कहीं पर राग-द्वेष को कषाय में सम्मिलित कर वेद के स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, ये तीन भेद किए हैं। वस्तुतः, मिथ्यात्व और कषाय -ये कलुषित चित्तवृत्तियाँ हैं, जो अनादिकाल से आत्मा के साथ लगी हैं और उन्हीं के कारण मूर्छा करता हुआ आत्मा कर्मबंधन (परिग्रह) करता है। बाह्य-परिग्रह - जब अंतरंग में परिग्रहवृत्ति होती है, तभी बाह्य-वस्तुओं को ग्रहण करने की अभिलाषा मन में उत्पन्न होती है। जैसे पदार्थ अगणित हैं, वैसे ही परिग्रह के भेद भी अगणित हो सकते हैं, पर संक्षेप में आचार्य हरिभद्र ने नौ भेदों का वर्णन किया है। बृहत्कल्पभाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने बाह्य परिग्रह के दस भेद बताए हैं। वे क्रमशः इस प्रकार हैं - 1. क्षेत्र - खेत या भूमि आदि। 2. वास्तु – रहने के लिए मकान, दुकान आदि । 52 प्रश्नव्याकरणसूत्र, वृत्ति-761, सन्मति ज्ञानपीठ प्रकाशन 9 (क) प्रश्नव्याकरण टीका, पृ. 451(ख) कोहो माणो माया, लोभो, पेज्जं तहेव दोसो अ मिच्छति वेद अरइ, रइ हासो सागो भय-दुगुंछा || -- बृहत्तकल्पभाष्य -931 (ग) मिच्छत-वेद रागा, हासादि भया होति छदीसा चत्तारि तह कसाया, चोद्दसं अभंतरा गंथा ।। -- प्रतिक्रमणत्रयी, पृ. 175 54 आवश्यक हरिभद्रीयवृत्ति, अ. 6 55 (क) खेत्तं वत्थु धण-धन्न संचओ मित्तणाई संजोगे जाण-सयणासणाणि य, दासी-दास च कुव्वयं च।। -- बृहत्कल्पभाष्य - 825 (ख) वंदितुसूत्र, गाथा-18 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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