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रूप उपलब्ध होते हैं। इस स्तर पर अव्यक्त आकांक्षाएं चेतना के स्तर पर आकर व्यक्त हो जाती है।
वस्तुतः, जीववृत्ति से लेकर संकल्प तक के सारे स्तरों में इच्छा के मूल तत्त्व की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। चाहे वह आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की संज्ञा ही क्यों न हो, अंतर है तो केवल चेतना में उनके स्पष्ट
बोध का।
अभिधानराजेन्द्रकोश में भी संज्ञा को जैन-आगमों के आधार पर अनेक प्रकार से प्रकाशित किया गया है। प्रथमतया, उसमें संज्ञा शब्द को दो प्रकार से परिभाषित किया गया है। प्रथम, 'संज्ञानं संज्ञा' कहकर उसे ज्ञानार्थ में परिभाषित किया गया है। इस प्रसंग में संज्ञा को ऊहापोह या विमर्शात्मक भी माना गया है। दूसरी ओर, उसे अर्थग्राहक-चेतना मानकर अभिलाषा, आकांक्षा, इच्छा आदि के रूप में परिभाषित किया गया है। वस्तुतः, यदि हम देखें, तो जैन आगमों में 'संज्ञा' शब्द इन्हीं दो अर्थों में ही प्रचलित रहा है - 1. अव्यक्त इच्छा और 2. विवेक-क्षमता।
आचारांगसूत्र में कहा गया है - सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं – इहमेगेसिो सण्णा भवई।
यहाँ भगवान् ने यह बताया है कि संसार में कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्हें संज्ञा अर्थात् विवेक-शक्ति नहीं होती, यहाँ भगवान् ने संज्ञा (सण्णा) शब्द विवेक और ज्ञान के रूप में प्रयोग किया है, क्योंकि इसी क्रम में आगे बताया है कि व्यक्ति यह नहीं जानता है कि -
मैं कौन हूँ ? . पूर्वादि किस दिशा से आया हूँ ? यहाँ से मरकर कहाँ जाऊगां? आदि।
यहाँ संज्ञा शब्द वस्तुतः ज्ञान या विवेक-शक्ति का ही सूचक है।
1° आचारांगसूत्र -1/1/1/1
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