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________________ "ननु च संज्ञिनः इत्यनेनैव गतार्थत्वात्समनस्का इति विशेषणमनर्थकम्।" - इस सूत्र में, 'संज्ञिनः' इतना पद देने से ही काम चल जाता है, अम: 'समनस्काः ' यह विशेषण देना निष्फल है, क्योंकि हित की प्राप्ति और अहित के त्याग की परीक्षा करने में मन का व्यापार होता है, यही संज्ञा है', यह कहना उचित नहीं है, संज्ञा शब्द के अर्थ में व्यभिचार पाया जाता है। संज्ञा का एक अर्थ 'नाम' (Noun) भी है। यदि नाम वाले जीव संज्ञी माने जाएं, तो सभी जीवों को संज्ञी होने का प्रसंग प्राप्त हो जाएगा। संज्ञा का अर्थ यदि ज्ञान मान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञान-स्वभावी होने से सबको संज्ञी मानने का प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञी कहा जाता है, तो भी पहले के समान दोष प्राप्त होता है। चूंकि यह दोष प्राप्त न हो, अतः सूत्र में 'समनस्का' यह पद रखा है, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में संज्ञा का यह अर्थ भी सीमित है। व्यापक अर्थ में संज्ञा संसारी-जीवों के व्यवहार की प्रेरक दैहिक या चैतसिक आन्तरिक-वृत्ति है। जैनागमों में संज्ञा का एक अर्थ इच्छा या आकांक्षा (Desire) भी लिया गया है, फिर भी इच्छा, आकांक्षा तथा संज्ञा में अंतर है। संज्ञा प्रसुप्त या अवचेतन में रही हुई इच्छा है। आहार आदि विषयों की अव्यक्त इच्छा को संज्ञा कहा गया है। यह प्रसुप्त चेतना वाले एकेन्द्रिय आदि जीवों में भी पाई जाती है। जैनदर्शन में जीव-वृत्ति (Want), क्षुधा (Apetite), अभिलाषा (Desire), वासना (Sex), कामना (Wish), आशा (Expectation), लोभ (Greed), तृष्णा (Patience), आसक्ति (Attachment) और संकल्प (Will) -ये सभी संज्ञा के पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हुए हैं, जिनका सामान्य अर्थ शरीर, इन्द्रियों और मन की अपने विषयों की चाह से है। प्रत्येक जीवतत्त्व, चाहे वह एकेन्द्रिय हो या पंचेन्द्रिय, उसमें आहार आदि संज्ञाएँ अव्यक्त या व्यक्त रूप में अवश्य पाई जाती हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पशुजगत् तथा प्राणी में जीववृत्ति के साथ-साथ क्षुधा का भी योग रहता है, लेकिन मानवीय-स्तर पर तो संज्ञा के अनेक 7"हिताहित प्राप्तिपरिहारयोगुणदोष विचारणात्मिका संज्ञा" -राजवार्तिक सू.24, पृ. 136 राजवार्त्तिक -2/24/7/136/77 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (भाग-1), डॉ. सागरमल जैन,पृ.460 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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