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________________ 234 झपकते ही वह संपूर्ण विश्व का स्वामी बन जाए। वस्तुतः वह दरिद्र होने पर भी महान परिग्रही है, क्योंकि उसके मन में तीव्र परिग्रहसंज्ञा है।10। जैन-कर्मसिद्धान्त के अनुसार, लोभ-मोहनीयकर्म के उदय से सचित्त् एवं अचित्त-द्रव्यों को संचय करने की जो वृत्ति होती है, वह परिग्रह-संज्ञा है। प्राणी की संचयात्मक-वृत्ति के कारण स्थानांगसूत्र' में परिग्रह-संज्ञा की उत्पत्ति के चार कारण बताए गए हैं - 1. संचय करने की वृत्ति से। 2. लोभ–मोहनीयकर्म के उदय से। 3. परिग्रह को देखने से 4. परिग्रह सम्बन्धी विचार करने से। आगे हम इनकी विस्तृत विवेचना करेंगे। 1. संचय करने की वृत्ति से - मुख्यतः, परिग्रह का सीधा सम्बन्ध तो व्यक्ति की आसक्ति से है, किन्तु गौणरूप से वस्तु-संग्रह की वृत्ति भी परिग्रह कहलाती है। मनुष्य एक देहधारी प्राणी है और देहधारी की अपनी कुछ आवश्यकताएँ होती हैं, जिनकी पूर्ति पदार्थों के द्वारा ही की जा सकती है। देह के लिए आहार आवश्यक है, अतः आवश्यक पदार्थों का संग्रह और उसके लिए अर्थ-उपार्जन भी जरूरी है। जैनदर्शन में इसलिए गृहस्थ के लिए यह निर्देश है कि वह अपने पुरुषार्थ से धन का अर्जन करे, क्योंकि मनुष्य को स्वप्रयत्नों से उपार्जित सम्पत्ति को ही भोगने का अधिकार है। गौतमकुलक में कहा 10 क) मूर्छाछन्नधियाँ सर्व जगदेव परिग्रहः । मूर्छया रहितानां तु, जगदेवा परिग्रहः ।। - उपासकदशांगसूत्र ख) इच्छा परिणामं करेह - उपासकदशांगसूत्र ॥ चउहिं ठाणेहिं परिग्गहसण्णा समुप्पज्जति, तं जहाअविमुत्तयाए, लोभवेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं। - स्थानांगसूत्र - 4/582 12 मोक्खपसाहणहेतुं णाणादी तप्पसहणे देहो देहट्ठा आहारो तेण तु कालो अणुण्णातो।। - निशीथभाष्य, 47/91 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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