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नहीं उखाड़े जाएंगे, तब तक इन कुसंस्कारों के जाग्रत होने की पूरी-पूरी संभावना रहती है। जिस प्रकार दूध मे घी रहता है, उसी प्रकार ईंधन में अग्नि छुपी हुई है, परन्तु अग्नि का निमित्त पाकर ही ईंधन में से अग्नि प्रकट होती है, पेट्रोल में भयंकर आग रही हुई है, लेकिन जब तक उसे चिनगारी नहीं मिले, तब तक वह पेट्रोल पानी की तरह शीतल दिखाई देता है। मोहाधीन संसारी आत्मा के भीतर काम, क्रोध आदि संस्कार तो पड़े हुए हैं और ऐसा ही प्रतीत होता है, मानों व्यक्ति निष्काम और अक्रोधी बन गया है, परन्तु ज्यों ही शुभ-अशुभ निमित्त मिलते हैं, वे कुसंस्कार तुरंत जाग्रत हो जाते हैं और व्यक्ति कामातुर और क्रोधातुर बन जाता है।
मनुष्य के भीतर जो प्रबल ‘कामवासना' रही हुई है, वह कामवासना भी निमित्त पाकर ही जाग्रत होती है। युवावस्था, एकांत, अधंकार, कुसंग, वीभत्स दृश्य, अश्लील-साहित्य तथा स्त्री-संग आदि ऐसे प्रबल निमित्त हैं, जो आत्मा के भीतर रही हुई कामवासना को जाग्रत कर देते हैं। एक छोटी सी चिनगारी क्षणभर में घास के ढेर को जलाकर खाक कर देती है। ड्रायवर की एक छोटी-सी भूल अनेक जिन्दगियों को क्षणभर में नष्ट कर देती है, ठीक इसी प्रकार एक छोटा सा अशुभ निमित्त पाकर कामवासना जाग्रत हो जाती है और साधना का पतन कर देती है, जैसे – संभूति मुनि18 अपने चारित्र से पतित हुए और नंदिषेण मुनि182 बारह वर्ष तक वेश्या के जाल में फंसे रहे।
जिस प्रकार आहार-संज्ञा को जीतने के लिए तप-धर्म है, भयसंज्ञा को जीतने के लिए अभय-धर्म है, परिग्रहसंज्ञा को जीतने के लिए दान-धर्म है, उसी प्रकार अनादिकाल से आत्मा में रही काम-वासना को जीतने के लिए ब्रह्मचर्य-धर्म की साधना बताई है, क्योंकि भगवती आराधना183 में कहा गया है -"जैसे कुत्ता रक्तहीन
181 उत्तराध्ययन चूर्णि, 13, पृ. 214 182 उपदेशमाला, गाथा 54 13 ण लहदि जह लेहतो, सुक्खल्लहयमट्ठियं रसं सुणहो
से सग-तालुग रूहिरं लेहंतो मण्णए सुक्खं ।। महिलादि भोगसेवी, ण लहदि किंचि वि सुहं तथा पुरिसो। सो मण्णदे वराओ, सगकायपरिस्समं सुक्खं ।। - भगवती आराधना- 1255/56
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