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________________ अब्रह्म का सेवन करना चाहते हो, इससे तो अच्छा है कि अगन्धनसर्प (जो उगले हुए विष को पुनः चूसकर नहीं पीता } की तरह मरण को स्वीकार कर लो। यह शब्द सुनकर और अब्रह्मचर्य को अधर्म का मूल एवं अनेक दोषों का आश्रव होने के कारण वह पुनः संयम में स्थिर हो गए। 5. अहिंसा एवं सत्य के पालन के लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक यह बात निश्चित है कि वासना - जय की प्रक्रिया में, अहिंसा एवं सत्य के पालन में, ब्रह्मचर्य प्रबल साधन है। शास्त्रीय भाषा में कहें तो जिसने एक ब्रह्मचर्यव्रत की साधना कर ली, उसने सभी उत्तमोत्तम व्रतों की आराधना की है - ऐसा समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि एक ब्रह्मचर्यव्रत के भंग होने पर दूसरे प्रायः सभी व्रतों का भंग हो जाता है, इसलिए निपुण साधक को अहिंसा, सत्य आदि व्रतों की सम्यक् साधना के लिए ब्रह्मचर्यव्रत का सदा आचरण करना चाहिए, क्योंकि संसार के विषयभोग क्षणभर के लिए सुख देते हैं, किन्तु बदले में चिरकाल तक दुःखदायी होते हैं। मन से, वचन से और काया से अहिंसा का पूर्ण पालन करना हो तो बिना ब्रह्मचर्य के यह संभव नहीं है। अहिंसा - पालन का अर्थ है - बाह्य और आन्तरिक संयमवृत्ति | इससे देहासक्ति क्षीण होती है, इस कारण स्त्री-विषयक और पुरुष - विषयक विकार भी शान्त हो जाते हैं। संयम और तप अहिंसा भगवती के दो चरण हैं। संयम और तप के बिना अहिंसा का सुचारू रूप से पालन दुष्कर है। ब्रह्मचर्य का अर्थ संयम की पराकाष्ठा है, इसलिए संयमवृत्ति का ह्रास या देहासक् होना अब्रह्मचर्य है और वह हिंसा भी है । 180 वासना - जय की प्रक्रिया कैसे ? अनादिकाल के अभ्यास के कारण प्रत्एक आत्मा में काम, क्रोध, लोभ आदि मूलप्रवृत्तियां कुसंस्कार रहे हुए हैं। जब तक आत्मा में से ए कुसंस्कार मूल सहित 'खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा । - 180 Jain Education International 214 उत्तराध्ययनसूत्र - 14/13 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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