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स्वदारसंतोष-अणुव्रत का पालन करने को कहा गया है, अतः दोनों के आध्यात्मिकविकास के लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।
वासना-जय की प्रक्रिया और ब्रह्मचर्य की साधना
'सत्यं-शिवं-सुन्दरम्' ये जीवन के तीन आदर्श हैं। जीवन केवल सत्य ही नहीं, उसमें सुन्दरता भी चाहिए और शिवत्व तक पहुंचने के लिए साधना भी। प्रस्तुत संदर्भ में सत्य से तात्पर्य संसार है। शिवं का अर्थ ब्रह्मचर्य की साधना और सुन्दरम् का अर्थ आदर्श जीवन (वासनाजय की प्रक्रिया) से है। जिस जीवन में सत्यं शिवं सुन्दरम् -ये तीन आदर्श नहीं, वह जीवन. वास्तविक जीवन नहीं हो सकता है, क्योंकि अनादिकाल से यह जीव अपनी मूलप्रवृत्तियों के कारण एक भव से दूसरे भव, एक योनि से दूसरी योनि और एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त कर रहा है। इसका मूल कारण उसमें रही हुई इच्छा, तृष्णा और वासना है। वासनाओं के माध्यम से जीव कर्म को करता जाता है और इस कारण संसार–परिभ्रमण का क्रम लगातार चलता जाता है। कार कितनी भी अच्छी हो, पर उसमें ब्रेक सही न हों, तो वह कार कभी भी दुर्घटनाग्रस्त हो सकती है। ठीक उसी प्रकार, जब तक वासनाओं पर अंकुश न लगाया जाए, तो जीव शिवत्व को प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए आत्मा से परमात्मा बनने के लिए, इन्सान से ईश्वर बनने के लिए तथा जन से जिन बनने के लिए ब्रह्मचर्य की साधना बताई गई है। इस साधना के माध्यम से ही साधक शिव बन सकता है। ब्रह्मचर्य की साधना वासना-विजय की साधना है। मानव एकान्तशान्त स्थान पर बैठकर उग्र-से-उग्र तप की साधना कर सकता है, अन्य कठिन व्रतों की आराधना कर सकता है; पर जिस समय उसके अन्तर्मानस में वासना का भयंकर तूफान उठता है, उस समय वह अपने-आपको नियंत्रित नहीं रख पाता। 'कामवासना की लालसा ही लालसा में प्राणी एक दिन, उन्हें बिना भोगे ही दुर्गति में चला जाता है। 166
166 कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गइं। - उत्तराध्ययनसूत्र – 9/53
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