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चतुर्थ क्रम है, तथापि वह अपनी अद्भुत महिमा और गरिमा के कारण सभी व्रतों में प्रथम स्थान रखता है। "तं बंभ भगवंतं तित्थयरे चेव जहा मुणीणं'' अर्थात् ब्रह्मचर्य स्वयं भगवान है। जैसे श्रमणों में तीर्थकर सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। एक ब्रह्मचर्य-व्रत की जो आराधना कर लेता है, वह समस्त व्रत-नियमों की आराधना कर लेता है। समस्त व्रत, नियम, तप, शील, विनय, सत्य, संयम आदि की साधना का मूल आधार ब्रह्मचर्य को माना गया है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है - इन्द्रियों की अपने-अपने विषयों के प्रति रही हुई आसक्ति समाप्त करना है। प्रश्नव्याकरणसूत्र12 में बत्तीस उपमाओं द्वारा ब्रह्मचर्य की श्रेष्ठता स्थापित की गई है। जो निम्न हैं -
1. जिस प्रकार समस्त ग्रहों, नक्षत्रों और तारों में चन्द्रमा प्रधान होता है, उसी ___ प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है। 2. मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल और लाल (रत्न) की उत्पत्ति के स्थानों (खानों) में
समुद्र प्रधान है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य सर्व व्रतों का श्रेष्ठ उद्भव-स्थान है। 3. ब्रह्मचर्य मणियों में वैदूर्यमणि के समान उत्तम है। 4. ब्रह्मचर्य आभूषणों में मुकुट के समान है। 5. ब्रह्मचर्य समस्त प्रकार के वस्त्रों में क्षौमयुगल-कपास के वस्त्रयुगल के सदृश
है। 6. ब्रह्मचर्य पुष्पों में श्रेष्ठ अरविन्द (कमल) पुष्प के समान है। 7. ब्रह्मचर्य चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन के समान श्रेष्ठ है। 8. जैसे औषधियों, चमत्कारिक वनस्पतियो का उत्पत्ति स्थान हिमवान् पर्वत है,
उसी प्रकार आमशौषधि की उत्पत्ति का स्थान ब्रह्मचर्य है। 9. जैसे नदियों में शीतोदा नदी प्रधान है, वैसे ही सब व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है।
।' प्रश्नव्याकरणसूत्र, संवरद्वार-4 ।। प्रश्नव्याकरणसूत्र, संवरद्वार-अध्ययन 4
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