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एवं उसकी चर्चा करने के कारण मैथुन-संज्ञा भड़क उठती है। जहर तो खाने पर ही मारता है, जहर को देखने से किसी की मौत नहीं हो जाती है, किन्तु स्त्री-दर्शन और स्मरण भी आत्मपतन में निमित्त बन जाते हैं।
वासनात्मक-चिन्तन करने से -
मैथुन-संज्ञा की उत्पत्ति वासनात्मक-चिन्तन के कारण भी होती है, इसीलिए ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ में स्पष्ट रुप से कहा गया है कि पूर्वकृत कामक्रीड़ा का स्मरण करने से भी कामभोग के संस्कार पुनः जाग्रत हो जाते हैं। गृहस्थ-जीवन की पूर्वावस्था में यदि स्त्री-संसर्ग आदि किया हो, तो उसे पुनः याद नहीं करना चाहिए, क्योंकि वासनात्मक-चिन्तन करने से भी वासना जाग्रत हो जाती है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया है -“दीक्षा ग्रहण के बाद पूर्व जीवन में स्त्रियों के साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा आदि का कदापि चिन्तन न करें।"
उपर्युक्त कारण के अतिरिक्त मैथुन-संज्ञा की उत्पत्ति के अन्य कारण भी हो सकते हैं :1. स्त्रियों की कामजनक कथा करने से एवं स्त्रियों के मनोहर और मनोरम अंगों
का कामरागपूर्वक अवलोकन करने से। 2. अतिमात्रा में आहार-पानी का सेवन करने से या सरस स्निग्ध भोजन का
उपयोग करने से। 3. स्त्री, पशु, नपुंसक से युक्त शय्या या आसनादि का सेवन करने से। 4. अतिमात्रा में मादक पदार्थ जैसे शराब आदि का सेवन करने से। 5. श्रृंगार, विलेपन, सुगंधित इत्र, सुन्दर वस्त्राभूषण का धारण करना, कामवासना
को उत्तेजित करने तथा मैथुन-संज्ञा की उत्पत्ति के कारण होते हैं।
30 हासं किइडं रइं एवं दप्पं सहभत्तासियाणि य
बम्भचेररओ थीणं नाणुचिन्ते कयाइ वि। - उत्तराध्ययनसूत्र 16/6
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