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काम-वासनाएँ जाग्रत हो जाती हैं। दोनों में संभोग के लिए जो भाव - विशेष होता है, अथवा दोनों मिलकर जो संभोग क्रिया करते हैं, उसी को मैथुन कहते हैं । मैथुन ही अब्रह्म है। 19 यहां अब्रह्म का अर्थ है पर में परिचारणा, अतएव उस अभिप्राय से जो भी क्रिया की जायगी, फिर चाहे वह परस्पर पुरुष या दो स्त्री मिलकर ही क्यों न करें अथवा अनंगक्रीड़ा आदि ही क्यों न हो, वह सब अब्रह्म या मैथुन ही है
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स्थानांगसूत्र में मैथुन - संज्ञा की उत्पत्ति के चार कारण बताए गए
(1) नामकर्मजन्य दैहिक - संरचना के कारण ।
(2) चारित्र - मोहनीय कर्म के उदय से । ( 3 ) काम - भोग सम्बन्धी चर्चा करने से । (4) वासनात्मक - चिन्तन करने से ।
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" मैथुनम् ब्रह्म - तत्त्वार्थसूत्र 7 / 11
20 उऊहिं ठाणेहिं मेहुणसण्णा समुप्पज्ज, चितमंससोणिययाए
तं जहा मोहणिज्जस्स
2)
कम्मस्स उदएणं, मतीए, 4) तदट्ठोवओगेणं - 4 / 4, सूत्र 58
उत्तराध्ययनसूत्र 33/13
नामकर्मजन्य दैहिक - संरचना के कारण
जिस कर्म के उदय से जीव विभिन्न प्रकार के शरीर, रुप, रस, गंध, वर्ण, स्पर्श, संघयण, संस्थान, आकृति, प्रकृति आदि प्राप्त करता है उसे नामकर्म" कहते हैं। नामकर्म के उदय के कारण ही दैहिक - संरचना को निर्माण होता है। इसी कर्म के कारण स्त्री और पुरुष की दैहिक - संरचना में भिन्नता होती है। स्त्री का स्वरुप सुन्दर, सुडौल और प्रकृति से ही कोमल और सौम्य होता है, इसलिए स्त्री को सुन्दरता की प्रतिमूर्ति कहा जाता है । स्त्री के रुप में आसक्त कवि को स्त्री के मुख में चन्द्रमा की सौम्यता के दर्शन होते हैं और वह उसे 'चन्द्रमुखी' की उपमा देता है । स्त्री के राग के कारण ही स्त्री की गति में हाथी (गज) जैसी मस्ती होती है, इसलिए उसे गजगामिनी कहा जाता है। उसके नेत्रों को कमल की पंखुड़ी के समान मानकर
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