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________________ और तीन ही मैथुन का सेवन भी करते हैं- (1) स्त्री (2) पुरुष (3) नपुंसक । 14 देव या अप्सरा संबंधी मैथुन को दिव्य मैथुन कहते हैं । नारी अर्थात् मनुष्यनी से संबंधित मैथुन को मानसिक-मैथुन कहते हैं और पशु-पक्षी आदि के मैथुन को तिर्यंच - विषयक मैथुन कहते हैं। केवल रतिकर्म का ही नाम मैथुन नहीं है, बल्कि रागभाव - पूर्वक जीव की जितनी भी चेष्टाएं हैं, वे सभी मैथुन हैं। 15 स्त्री के अंग, प्रत्यंग, संस्थान, मधुर बोली और कटाक्ष को देखने, उनकी ओर ध्यान देने आदि ये सभी काम - राग को बढ़ाने वाले हैं। 1" इस सम्बन्ध में कहा गया है कि स्त्री के चित्रों, भित्तिचित्रों या आभूषण से सुसज्जित स्त्री को टकटकी लगाकर देखना, कामवर्द्धक प्रवृत्ति है। उन पर दृष्टि भी पड़ जाए तो उसे वैसे ही खींच लेते हैं, जैसे मध्याह्न सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि स्वयं खींच जाती है । 17 16 मैथुन - संज्ञा की उत्पत्ति के कारण : अनादिकाल से प्रत्येक संसारी-जीवों में चार संज्ञाए पायी जाती हैंआहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा और मैथुनसंज्ञा । तिर्यंचगति में आहारसंज्ञा की प्रधानता है। नरकगति में भयसंज्ञा की प्रधानता है, देवगति में परिग्रहसंज्ञा की प्रधानता है 18 और मनुष्य गति में मैथुन - संज्ञा की प्रधानता है। इस मैथुन - संज्ञा के कारण पुरुष को स्त्री के भोग की और स्त्री को पुरुष के भोग की इच्छा होती है। अनादिकाल से आत्मा में घर कर गई इन संज्ञाओं को तोड़ना अत्यन्त कठिन कार्य है । निमित्त प्राप्त होते ही ए संज्ञाएँ जाग्रत हो जाती है। जिस प्रकार अग्नि के संपर्क से मोम पिघलने लगता है, उसी प्रकार स्त्री के निमित्त को पाते ही पुरुष के भीतर " तिविहे मेहुणे पण्णते, तं जहा तओ मेहुणं गच्छति, तं जहा तओ मेहुणं संवति, तं जहा 15 दशवैकालिकसूत्र 4/4 16 वही - 8 /57 " वही - 8 /54 18 प्रज्ञापनासूत्र Jain Education International - 8/734 148 • दिव्वे, माणुस्सए तिरिक्खजोणिए । देवा, मणुस्सा, तिरिक्खजोणिया • इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा । - स्थानांगसूत्र - 3 / 10-12 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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