SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 120 आप इस बात में यकीन करने लगते हैं कि आखिरकार यह आपको नहीं मार सकता। यह विश्वास आते ही डर (फ बिया) धीरे-धीरे चला जाएगा। इस प्रकार हम फोबिया से बच सकते हैं। जैन-मनोविज्ञान में शंका (Doubt), आकांक्षा (Desires), विचिकित्सा (Formulities) -ये सब भय के ही रूप माने जाते हैं। शंका (Doubt) जहाँ भय होगा, वहाँ शंका (Doubt) अवश्य होगी। जो डरता है, वह सदा संवेदनशील बना रहता है। शंका सदैव फल के प्रति संदेहरूप होती है। प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों के फल के प्रति शंकाग्रस्त रहता है कि कल क्या होगा ? बहुत संघर्ष, मेहनत एवं पराक्रम द्वारा धन, वैभव और उच्च स्थिति को प्राप्त किया है। हम डरते हैं कि कल यह सब चला जाए, तो क्या करेंगे ? इस प्रकार की शंका सदा बनी रहती है कि मेरी सुरक्षा को कोई खतरा तो नहीं है ? मेरा जीवन सुरक्षित रहेइसी भयग्रस्त वृत्ति के कारण संसार में निरंतर हिंसा, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा बनी रहती है। आपसी रिश्तेदारों में पारस्परिक सम्बन्धों में तब-तब संदेह पैदा होता है, जब-जब आदमी को अपने निहित स्वार्थों में कोई बाधा प्रतीत होती है। जब भी किसी के प्रति संदेह हमारे मन में पैदा होता है, तो उसके पीछे स्वयं के हितों की रक्षा की भावना ही मुख्यतः काम करती है। यह शंका एक असम्यक् सोच का परिणाम है। 18 वीं शताब्दी के अवधूत योगीराज श्री आनंदघनजी कृत श्री संभवनाथ स्तवनावली में कहा है - भय चंचलता हो जे परिणामनी रे...... । विचारों की चचलता को भय कहते हैं। परिणाम कहो, अध्यवसाय कहो, मनोभाव कहो अथवा विचार कहो, एक ही है। जब ये चंचल बनते हैं, तो भय के भूत नाचने लगते हैं। भय का प्रारंभ शंका से होता है और मन चंचल बन जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy