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करने के लिए श्रम करता है, कड़ी मेहनत करता है, खून-पसीना एक करता है, तब कहीं जाकर वह जीवन जीने के लिए धन एकत्रित कर पाता है । प्रतिस्पर्धा के इस युग में आजीविका का भय हर साधारण मनुष्य को रहता है। प्रत्येक मनुष्य सुख-सुविधा के लिए अधिकाधिक कमाना चाहता है । साधन सीमित हैं और इच्छाएँ असीम हैं, अतः इच्छाओं की पूर्ति के लिए और जीवन-यापन के लिए धन के संचय करने का जो भय बना रहता है, वह आजीविका- - भय है ।
6. अपयश - भय
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जगत्, समाज, परिवार आदि में अपयश होने या निंदित होने के भय को अपयश - भय कहते हैं । आजीविका के प्रश्न का समाधान होते ही आदमी यश-प्रतिष्ठा के लिए जीना शुरू कर देता है । प्रत्येक आदमी स्वयं को प्रतिष्ठित देखना चाहता है और इस प्रतिष्ठा और आदर-सत्कार में कहीं कोई कमी न आए, यह चाह ही उसे इस भय से ग्रस्त करती है। आदमी सदा अपयश से डरता है । वह सदा यह चाहता है कि उसकी साख बनी रहे, उसकी मान-प्रतिष्ठा बनी रहे, उसका यश खंडित न हो। वह अपने यश को बनाए रखने के लिए झूठे मानदण्डों को भी अपनाता है, कष्ट भी सहता है और अनेक कठिनाइयों का सामना करता है। इस भय से प्रताड़ित व्यक्ति कभी - कभी बहुत अनर्थकारी कार्य भी कर बैठता है
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7. मरण-भय
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आदमी बीमारी से नहीं मरता, आदमी मरता है - मृत्यु के भय से । किसी को कह दिया जाए कि उसके शरीर में कैंसर का रोग है, यह सुनकर ही वह हताश को मरण के ओर अग्रसर होने लगेगा। आदमी मृत्यु के डर से ही मरता है, मृत्यु से नहीं । यही भय मरण-भय के नाम से जाना जाता है ।
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एक वृद्ध भोले आदमी ने रात को सोते समय दाँतों को एक कटोरे में रख दिया। एक बच्चा वहाँ आया और दाँतों को खिलौना समझकर ले गया। वह आदमी सुबह उठा, और उसने अपने पास में रखे दाँतों को ढूंढा, लेकिन वे नहीं मिले।
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