SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 87 प्राणी, प्राणी को कैसे खा सकता है ? जार्ज बर्नाड शॉ मांस नहीं खाते थे। वे कहते थे –“मैं पेट को कब्रिस्तान नहीं बनाना चाहता।" पशुओं को खाने वाले केवल मांस को ही नहीं खाते, मांस के साथ पशु के संस्कार भी खा लेते हैं। इस कारण, उनकी भावना भी क्रूर और उत्तेजनायुक्त हो जाती है। आहार जीवन का साध्य नहीं है, मात्र साधन है। उसकी उपेक्षा तो नहीं की जा सकती है। शरीर-शास्त्र की दृष्टि से आहार शरीर पर ही प्रभाव नहीं डालता, उसका प्रभाव मन पर भी होता है। मन पवित्र रहे, शान्त रहे, इसके लिए आहार का विवेक होना बहुत जरूरी है। जैन-संस्कृति के अनुसार आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से पूर्व जब तक कृषि का विकास नहीं हुआ था और यौगलिक सभ्यता थी, उस युग का मानव कल्पवृक्षों से सहज प्राप्त फल आदि खाकर सात्विक जीवन जीता था। भगवान् ऋषभदेव ने मनुष्य-जाति की बढ़ती हुई जनसंख्या को अपने भोजन आदि की आवश्यकता पूर्ति के लिए खेती करना सिखाया। खेती के लिए उपयोगी पशुपालन, गोपालन आदि की शिक्षा दी और इस प्रकार मानव सभ्यता में खेती एवं पशुपालन आदि का विकास हुआ। पहले मनुष्य केवल फल व वनस्पति से ही भूख मिटाता था। कृषि एवं गोपालन आदि का विकास होने पर उनके भोजन में तीन प्रकार के पदार्थ सम्मिलित हो गए। -1. वनों में सहज निष्पन्न फल, 2. कृषि द्वारा उत्पन्न किया हुआ अन्न, धान्य, शाक आदि तथा 3. पशुओं से प्राप्त दूध आदि । प्राचीन काल में मानव का भोजन यही स्वाभाविक भोजन था, जिसे हम आज शाकाहार के नाम से जानते हैं। समग्र भारतीय संस्कृति का यह दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य मूलतः शाकाहारी प्राणी है। उसके दाँत, आँतें, जीभ, जिगर आदि की रचना शाकाहार के सर्वथा अनुकूल है और मांसाहारी प्राणियों से बिल्कुल भिन्न है, साथ ही उसकी मानसिक व बौद्धिक-रचना भी शाकाहार–प्रकृति की है। वैज्ञानिकों ने भी अनेक प्रकार के अनुसंधान करके, पुरातात्त्विक खोजों व मानव जीवन विज्ञान के आधार पर यही 85 आहार और आध्यात्म, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 43 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy