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देवसेन, चामुण्डराय, वीरनन्दी आदि सभी श्वेताम्बर-दिगम्बर आचार्यों ने रात्रिभोजनत्याग को महाव्रती की रक्षा के लिए आवश्यक मानते हुए उसे छठवां अणुव्रत माना है। चाहे पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द'", श्रुतसागर' आदि तत्त्वार्थसूत्र के कुछ व्याख्याकार रात्रिभोजन-विरमण-व्रत को छठवां व्रत या अणुव्रत न मानें, तथापि सभी ने रात्रिभोजन के दोषों का निरूपण किया है और इस बात पर बल दिया है कि रात्रिभोजन श्रमण के लिए एवं साधक-श्रावक के लिए सर्वथा त्याज्य है। बौद्ध धर्म में भिक्षुओं के लिए विकाल भोजन (दिन के 12 बजे के पश्चात् से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय के पूर्व तक का समय विकाल माना गया है।) एवं रात्रिभोजन को त्याज्य बताया गया है। इस प्रकार, सभी धर्मशास्त्रों में रात्रिभोजन को हिंसात्मक मानकर उसका निषेध किया गया है।
वैज्ञानिक दृष्टि से रात्रिभोजन-निषेध -
जहाँ तक धार्मिक मान्यता का प्रश्न है, उसमें रात्रिभोजन का हिंसादि कारणों से निषेध किया गया है, परंतु रात्रिभोजन योगशास्त्र, आयुर्वेद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी हानिकारक है। चिकित्सा-शास्त्रियों का अभिमत है कि कम से कम सोने के तीन घण्टे पूर्व भोजन कर लेना चाहिए। जो लोग रात्रि में भोजन करते हैं और भोजन के तुरन्त बाद सो जाते हैं, उनके शरीर में जल, प्राणवायु और सूर्य के प्रकाश के अभाव के कारण आहार सुचारू रूप से पचता नहीं है, जिससे अनेक रोगों का जन्म होने लगता है।
68 सर्वार्थसिद्धि, - 7/1 टीका, पृ. 343-44 6° तत्त्वार्थराजवार्तिक, - 7/1 टीका, भाग-2, पृ. 534 7° तत्त्वार्थवार्तिक - 7/1 टीका, पृ. 5-458 11 तत्त्वार्थवृत्ति – 7/1 2 मज्झिमनिकाय कीटागिरि – सुत्त (70)
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