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________________ भोजन करने वाला अग्निहोत्र जितना फल प्राप्त करता है और जो सूर्यास्त से पहले भोजन करता है, वह तीर्थयात्रा के फल को प्राप्त करता है। यदि किसी के घर में स्वजन की मृत्यु हो जाए तो कितने ही दिनों तक उसका सूतक रहता है, फिर सूर्य अस्त हो जाने पर भोजन कैसे किया जा सकता है। रात्रिभोजन से परलोक में विविध प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। जो रात्रि में भोजन करता है, वह अगले जन्म में उल्लू, कौआ, बिल्ली, गिद्ध, शंबर, सूअर, सर्प, बिच्छू, गोह आदि की निकृष्ट योनि में जन्म ग्रहण करता है, अतः समझदार और विवेकी जनों को रात्रिभोजन का त्याग अवश्य करना चाहिए। 65 जो भव्य आत्मा हमेशा के लिए रात्रिभोजन का त्याग करता है, उस त्यागी को आधी उम्र के उपवास का फल प्राप्त होता है। रात्रि में जो दोष लगते हैं, वे दोष (दिन के समय) अंधेरे में भोजन करने से भी लगते हैं। क्योंकि अन्धकार में सूक्ष्म जीव दिखाई नहीं देते हैं इसलिए रात को बनाया गया भोजन दिन में ग्रहण किया जाए, तो भी वह रात्रिभोजन तुल्य ही माना गया है। __पं. आशाधरजी ने 'सागारधर्मामृत' में रात्रिभोजन-त्याग के विषय में लिखा है। अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए एवं मूलगुणों को निर्मल करने के लिए धीर व्रती को मन, वचन और काया से जीवनपर्यन्त के लिए रात्रि में चारों प्रकार के भोजन का त्याग करना चाहिए। इसी प्रकार, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, मूलाचार, भगवतीआराधना में रात्रिभोजन का निषेध किया गया है। आचार्य हरिभद्र, हेमचन्द्र, " मृते स्वजन मात्रेऽपि, सूतकं जायते किल अस्ते गते दिवानाथे, भोजनं क्रियते कथम् ? (मार्कण्डपुराण) 5 (क) उलूककाकमार्जार, गृद्ध संबरशुकराः अहिवृश्चिक गोधाश्च जायन्ते रात्रिभोजनात्।। - योगशास्त्र, 3/67 (ख) उमास्वातिश्रावकाचार, 329 (ग) श्रावकाचारसारोद्धार 118, उद्धृत- श्रावकाचार संग्रह भाग-3 6 करोति विरतिं धन्यो, यः सदा निशि भोजनात् सोडळं पुरूषायुव्रकस्य, स्यादवश्यमुपोषितः ।। - योगशास्त्र 3/69 6 अहिंसाव्रत रक्षार्थ मूलव्रत विशुद्धवे। नक्तं भुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धीरस्त्रिधा व्यजेत् । – सागारधर्मामृत से उदृधृत, 4/24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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